Short Questions & Answers Are given below (लघु प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
“दिव्य मूर्त बनने की विधि”
आज बहुत शिक्षा दी। यह स्नेह है। क्योंकि बापदादा समान बनाना चाहते हैं। समान बनाने का साधन स्नेह हुआ ना।
कुमारियों का पेपर तो अब लेना है। साहस को प्रत्यक्ष रूप में लाने के लिए साहस में बहुत-बहुत शक्ति भरनी है। अब कितनी शक्ति भरी है, वह पेपर लेंगे। अच्छा।
पार्टियों के साथ –
1 – जितना-जितना अपने को सर्विस के बन्धन में बांधते जायेंगे तो दूसरे बन्धन छूटते जायेंगे। आप ऐसे नहीं सोचो कि यह बन्धन छूटे तो सर्विस में लग जाएँ। ऐसे नहीं होगा। सर्विस करते रहो। बन्धन होते हुए भी अपने को सर्विस के बन्धन में जोड़ते जाओ। यह जोड़ना ही तोडना है। तोड़ने के बाद जोड़ना नहीं होता है। जितना जोड़ेंगे उतना ही टूटेगा। जितना अपने को सर्विस में सहयोगी बनायेंगे उतना ही प्रजा आपकी सहयोगी बनेगी। कोई भी कारण है तो उनको हल्का छोड़कर पहले सर्विस के मौके को आगे रखो। कर्तव्य को पहले रखना होता है। कारण होते रहेंगे। लेकिन कर्तव्य के बल से ढीले पड़ जायेंगे।
2 – माताओं के जो संगठन बने हुए हैं उनमें घुस जाओ। मेम्बर बनने से फिर कईयों को आप समान बनाने का चांस मिलेगा। संपर्क में आने से ही चांस मिलेगा। अभी माताओं की संस्थाओं में आप लोगों का नाम बाला नहीं हुआ है। पहले गुप्त वेश में पाँव रखो फिर वह तुम्हारे बन जायेंगे। भटकी हुई माताओं को राह बतानी है। तो फिर मातायें जो बिचारी सितम सहन करती हैं, उन्हों को भी आप बचा सकेंगे। कई मातायें सहारा चाहती हैं, उन्हों को सहारा मिल जायेगा। तो यह सर्विस कर कमाल कर दिखाओ फिर देखो कितने हैंड्स मिलते हैं। बहुत समय की यह बात प्रैक्टिकल में लानी है। जैसे एक एशलम (शरण) देते हैं ना। वह है अनाथ आश्रम। यह तो सनाथ आश्रम है। अच्छा।
3 – अव्यक्त स्थिति का अनुभव होता है? एक सेकंड ही अव्यक्त स्थिति का अनुभव होता है तो उसका असर काफी समय तक रहता है। अव्यक्त स्थिति का अनुभव पावरफुल होता है। जितना हो सके उतना अपना समय व्यक्तभाव से हटाकर अव्यक्त स्थिति में रहना है। अव्यक्त स्थिति से सर्व संकल्प सिद्ध हो जाते हैं। इसमें मेहनत कम और प्राप्ति अधिक होती है। और व्यक्त स्थिति में स्थित होकर पुरुषार्थ करने में मेहनत अधिक और प्राप्ति कम होती है। फिर चलते-चलते उलझन और निराशा आती है। इसलिए अव्यक्त स्थिति सर्व प्राप्ति का अनुभव बढ़ाओ।
अव्यक्तमूर्त को सामने देख समान बनने का प्रयत्न करना है। जैसा बाप वैसे बच्चे। यह स्लोगन याद रखो। अंतर न हो। अंतर को अन्तर्मुख होकर मिटाना है। बाप कब निराश होते हैं? परिस्थितियों से घबराते हैं? तो बच्चे फिर क्यों घबराते हैं? ज्यादा परिस्थितियों को सामने करने का साकार सबूत भी देखा। कभी उनका घबराहट का रूप देखा? सुनाया था ना कि सदैव यह याद रखो कि स्नेह में सम्पूर्ण होना है। कोई मुश्किल नहीं हैं। स्नेही को सुध-बुध रहती है? जब अपने आप को मिटा ही दिया फिर यह मुश्किल क्यों? मिटा दिया ना। जो मिट जाते हैं वह जल जाते हैं। जितना अपने को मिटाना उतना ही अव्यक्त रूप से मिलना। मिटना कम तो मिलना भी कम। अगर मेले में भी कोई मिलन न मनाये तो मेला समाप्त हो जायेगा फिर कब मिलन होगा? स्नेह को समानता में बदली करना है। स्नेह को गुप्त और समानता को प्रत्यक्ष करो। सभी समाया हुआ है सिर्फ प्रत्यक्ष करना है। अपने कल्प पहले के समाये हुए संस्कारों को प्रत्यक्ष करना है। कप पहले की अपनी सफलता का स्वरुप याद आता है ना। अभी सिर्फ समाये हुए को प्रैक्टिकल प्रत्यक्ष रूप में लाओ। सदैव अपनी सम्पूर्णता का स्वरुप और भविष्य 21 जन्मों का रूप सामने रखना है। कई लोग अपने घर को सजाने के लिए अपने बचपन से लेकर, अपने भिन्न-भिन्न रूपों का यादगार रखते हैं। तो आप अपने मन मन्दिर में अपने सम्पूर्ण स्वरुप की मूर्ति, भविष्य के अनेक जन्मों की मूर्तियाँ स्पष्ट रूप में सामने रखो। फिर और कोई तरफ संकल्प नहीं जायेगा।
समीप रत्न के लक्षण क्या हैं? जो जितना जिसके समीप होते हैं उतना संस्कारों में भी समानता होती है। तो बापदादा के समीप अर्थात् लक्षण के नजदीक आओ। जितना चेक करेंगे उतना जल्दी चेंज होंगे। आदि स्वरुप को स्मृति में रखो। सतयुग आदि का और मरजीवा जीवन के आदि रूप को स्मृति में रखने से मध्य समा जायेगा।
स्नेही हो वा सहयोगी भी हो? जिससे स्नेह होता है उनको रिटर्न में क्या दिया जाता है? स्नेह का रिटर्न है सहयोग। वह कब देंगे? जैसे बाप सर्व समर्थ है तो बच्चों को भी मास्टर सर्व समर्थ बनना है। विनाश के पहले अगर स्नेह के साथ सहयोगी बनेंगे तो वर्से के अधिकारी बनेंगे। विनाश के समय भल सभी आत्माएं पहचान लेंगी लेकिन वर्सा नहीं पा सकेंगी क्योंकि सहयोगी नहीं बन सकेंगी।
4 – कर्म बन्धन शक्तिशाली है या यह ईश्वरीय बन्धन? ईश्वरीय बन्धनों को अगर तेज़ करो तो कर्म बन्धन आपे ही ढीले हो जायेंगे। बन्धन से ही बन्धन कटता है। जितना ईश्वरीय बन्धन में बंधेंगे उतना कर्म बन्धन से छूटेंगे। जितना वह कर्मबन्धन पक्का है तो उतना ही यह ईश्वरीय बन्धन को भी पक्का करो तो वह बन्धन जल्दी कटेगा।
5 – बिन्दु रूप में अगर ज्यादा नहीं टिक सकते तो इसके पीछे समय न गंवाओ। बिंदी रूप में तब टिक सकेंगे जब पहले शुद्ध संकल्प का अभ्यास होगा। अशुद्ध संकल्पों संकल्पों से हटाओ। जैसे कोई एक्सीडेंट होने वाला होता है। ब्रेक नहीं लगती तो मोड़ना होता है। बिंदी रूप है ब्रेक। अगर वह नहीं लगता तो व्यर्थ संकल्पों से बुद्धि को मोड़कर शुद्ध संकल्पों में लगाओ। कभी-कभी ऐसा मौका होता है जब बचाव के लिए ब्रेक नहीं लगायी जाती है, मोड़ना होता है। कोशिश करो कि सारा दिन शुद्ध संकल्पों के सिवाए कोई व्यर्थ संकल्प न चले। जब यह सब्जेक्ट पास करेंगे तो फिर बिंदी रूप की स्थिति सहज रहेगी।आज बहुत शिक्षा दी। यह स्नेह है। क्योंकि बापदादा समान बनाना चाहते हैं। समान बनाने का साधन स्नेह हुआ ना।
कुमारियों का पेपर तो अब लेना है। साहस को प्रत्यक्ष रूप में लाने के लिए साहस में बहुत-बहुत शक्ति भरनी है। अब कितनी शक्ति भरी है, वह पेपर लेंगे। अच्छा।
पार्टियों के साथ –
1 – जितना-जितना अपने को सर्विस के बन्धन में बांधते जायेंगे तो दूसरे बन्धन छूटते जायेंगे। आप ऐसे नहीं सोचो कि यह बन्धन छूटे तो सर्विस में लग जाएँ। ऐसे नहीं होगा। सर्विस करते रहो। बन्धन होते हुए भी अपने को सर्विस के बन्धन में जोड़ते जाओ। यह जोड़ना ही तोडना है। तोड़ने के बाद जोड़ना नहीं होता है। जितना जोड़ेंगे उतना ही टूटेगा। जितना अपने को सर्विस में सहयोगी बनायेंगे उतना ही प्रजा आपकी सहयोगी बनेगी। कोई भी कारण है तो उनको हल्का छोड़कर पहले सर्विस के मौके को आगे रखो। कर्तव्य को पहले रखना होता है। कारण होते रहेंगे। लेकिन कर्तव्य के बल से ढीले पड़ जायेंगे।
2 – माताओं के जो संगठन बने हुए हैं उनमें घुस जाओ। मेम्बर बनने से फिर कईयों को आप समान बनाने का चांस मिलेगा। संपर्क में आने से ही चांस मिलेगा। अभी माताओं की संस्थाओं में आप लोगों का नाम बाला नहीं हुआ है। पहले गुप्त वेश में पाँव रखो फिर वह तुम्हारे बन जायेंगे। भटकी हुई माताओं को राह बतानी है। तो फिर मातायें जो बिचारी सितम सहन करती हैं, उन्हों को भी आप बचा सकेंगे। कई मातायें सहारा चाहती हैं, उन्हों को सहारा मिल जायेगा। तो यह सर्विस कर कमाल कर दिखाओ फिर देखो कितने हैंड्स मिलते हैं। बहुत समय की यह बात प्रैक्टिकल में लानी है। जैसे एक एशलम (शरण) देते हैं ना। वह है अनाथ आश्रम। यह तो सनाथ आश्रम है। अच्छा।
3 – अव्यक्त स्थिति का अनुभव होता है? एक सेकंड ही अव्यक्त स्थिति का अनुभव होता है तो उसका असर काफी समय तक रहता है। अव्यक्त स्थिति का अनुभव पावरफुल होता है। जितना हो सके उतना अपना समय व्यक्तभाव से हटाकर अव्यक्त स्थिति में रहना है। अव्यक्त स्थिति से सर्व संकल्प सिद्ध हो जाते हैं। इसमें मेहनत कम और प्राप्ति अधिक होती है। और व्यक्त स्थिति में स्थित होकर पुरुषार्थ करने में मेहनत अधिक और प्राप्ति कम होती है। फिर चलते-चलते उलझन और निराशा आती है। इसलिए अव्यक्त स्थिति सर्व प्राप्ति का अनुभव बढ़ाओ।
अव्यक्तमूर्त को सामने देख समान बनने का प्रयत्न करना है। जैसा बाप वैसे बच्चे। यह स्लोगन याद रखो। अंतर न हो। अंतर को अन्तर्मुख होकर मिटाना है। बाप कब निराश होते हैं? परिस्थितियों से घबराते हैं? तो बच्चे फिर क्यों घबराते हैं? ज्यादा परिस्थितियों को सामने करने का साकार सबूत भी देखा। कभी उनका घबराहट का रूप देखा? सुनाया था ना कि सदैव यह याद रखो कि स्नेह में सम्पूर्ण होना है। कोई मुश्किल नहीं हैं। स्नेही को सुध-बुध रहती है? जब अपने आप को मिटा ही दिया फिर यह मुश्किल क्यों? मिटा दिया ना। जो मिट जाते हैं वह जल जाते हैं। जितना अपने को मिटाना उतना ही अव्यक्त रूप से मिलना। मिटना कम तो मिलना भी कम। अगर मेले में भी कोई मिलन न मनाये तो मेला समाप्त हो जायेगा फिर कब मिलन होगा? स्नेह को समानता में बदली करना है। स्नेह को गुप्त और समानता को प्रत्यक्ष करो। सभी समाया हुआ है सिर्फ प्रत्यक्ष करना है। अपने कल्प पहले के समाये हुए संस्कारों को प्रत्यक्ष करना है। कप पहले की अपनी सफलता का स्वरुप याद आता है ना। अभी सिर्फ समाये हुए को प्रैक्टिकल प्रत्यक्ष रूप में लाओ। सदैव अपनी सम्पूर्णता का स्वरुप और भविष्य 21 जन्मों का रूप सामने रखना है। कई लोग अपने घर को सजाने के लिए अपने बचपन से लेकर, अपने भिन्न-भिन्न रूपों का यादगार रखते हैं। तो आप अपने मन मन्दिर में अपने सम्पूर्ण स्वरुप की मूर्ति, भविष्य के अनेक जन्मों की मूर्तियाँ स्पष्ट रूप में सामने रखो। फिर और कोई तरफ संकल्प नहीं जायेगा।
समीप रत्न के लक्षण क्या हैं? जो जितना जिसके समीप होते हैं उतना संस्कारों में भी समानता होती है। तो बापदादा के समीप अर्थात् लक्षण के नजदीक आओ। जितना चेक करेंगे उतना जल्दी चेंज होंगे। आदि स्वरुप को स्मृति में रखो। सतयुग आदि का और मरजीवा जीवन के आदि रूप को स्मृति में रखने से मध्य समा जायेगा।
स्नेही हो वा सहयोगी भी हो? जिससे स्नेह होता है उनको रिटर्न में क्या दिया जाता है? स्नेह का रिटर्न है सहयोग। वह कब देंगे? जैसे बाप सर्व समर्थ है तो बच्चों को भी मास्टर सर्व समर्थ बनना है। विनाश के पहले अगर स्नेह के साथ सहयोगी बनेंगे तो वर्से के अधिकारी बनेंगे। विनाश के समय भल सभी आत्माएं पहचान लेंगी लेकिन वर्सा नहीं पा सकेंगी क्योंकि सहयोगी नहीं बन सकेंगी।
4 – कर्म बन्धन शक्तिशाली है या यह ईश्वरीय बन्धन? ईश्वरीय बन्धनों को अगर तेज़ करो तो कर्म बन्धन आपे ही ढीले हो जायेंगे। बन्धन से ही बन्धन कटता है। जितना ईश्वरीय बन्धन में बंधेंगे उतना कर्म बन्धन से छूटेंगे। जितना वह कर्मबन्धन पक्का है तो उतना ही यह ईश्वरीय बन्धन को भी पक्का करो तो वह बन्धन जल्दी कटेगा।
5 – बिन्दु रूप में अगर ज्यादा नहीं टिक सकते तो इसके पीछे समय न गंवाओ। बिंदी रूप में तब टिक सकेंगे जब पहले शुद्ध संकल्प का अभ्यास होगा। अशुद्ध संकल्पों संकल्पों से हटाओ। जैसे कोई एक्सीडेंट होने वाला होता है। ब्रेक नहीं लगती तो मोड़ना होता है। बिंदी रूप है ब्रेक। अगर वह नहीं लगता तो व्यर्थ संकल्पों से बुद्धि को मोड़कर शुद्ध संकल्पों में लगाओ। कभी-कभी ऐसा मौका होता है जब बचाव के लिए ब्रेक नहीं लगायी जाती है, मोड़ना होता है। कोशिश करो कि सारा दिन शुद्ध संकल्पों के सिवाए कोई व्यर्थ संकल्प न चले। जब यह सब्जेक्ट पास करेंगे तो फिर बिंदी रूप की स्थिति सहज रहेगी।
“दिव्य मूर्त बनने की विधि”:
- दिव्य मूर्त बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण साधन क्या है?
- स्नेह और समानता।
- ईश्वरीय बन्धन से कर्म बन्धन कैसे कटता है?
- जितना ईश्वरीय बन्धन में बंधेंगे, उतना कर्म बन्धन स्वतः ढीला हो जाएगा।
- अव्यक्त स्थिति का क्या प्रभाव होता है?
- अव्यक्त स्थिति का अनुभव पावरफुल होता है, इसमें मेहनत कम और प्राप्ति अधिक होती है।
- सेवा के बन्धन में बंधने से क्या लाभ होता है?
- दूसरे बन्धन स्वतः छूटते जाते हैं, और प्रजा भी सहयोगी बनती है।
- बापदादा के समीप होने का क्या लक्षण है?
- संस्कारों में समानता बढ़ती है और आत्मा दिव्यता का अनुभव करती है।
- बिन्दु रूप में टिकने के लिए क्या करना आवश्यक है?
- व्यर्थ संकल्पों को छोड़कर, शुद्ध संकल्पों का अभ्यास करना।
- स्नेह का वास्तविक रिटर्न क्या है?
- स्नेह का रिटर्न सहयोग है, जो स्नेही आत्मा को मास्टर सर्व समर्थ बनाता है।
- अव्यक्तमूर्त बनने के लिए क्या करना चाहिए?
- “जैसा बाप, वैसे बच्चे” – इस स्लोगन को स्मृति में रखना और समान बनने का प्रयास करना।
- माताओं की सेवा के लिए क्या विशेष रणनीति अपनानी चाहिए?
- गुप्त रूप से संपर्क बढ़ाना, संगठन में प्रवेश करना, और माताओं को सहारा देना।
- भविष्य के सम्पूर्ण स्वरूप को स्मृति में रखने का क्या लाभ है?
- इससे आत्मा की स्थिरता बनी रहती है और कोई भी व्यर्थ संकल्प नहीं आता।
यह प्रश्न-उत्तर रूपी सारांश “दिव्य मूर्त बनने की विधि” को सरल और प्रभावी ढंग से समझने में सहायता करेगा।
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