Short Questions & Answers Are given below (लघु प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
संगमयुगी श्रेष्ठ आत्माओं की ज़िम्मेवारी
सभी विधाता, विधान और विधि को अच्छी रीति से जान चुके हो? अगर विधाता को जाना तो विधान और विधि स्वत: ही बुद्धि में वा कर्म में आ जाती है। विधाता द्वारा आप सभी श्रेष्ठ आत्माएं विधान बनाने वाली बनी हो, ऐसा अपने को समझ कर हर कर्म करते हो? क्योंकि इस समय तुम ब्राह्मणों का जो श्रेष्ठ कर्म है वही विश्व के लिये सारे कल्प के अंदर विधान बन जाता है। आप ब्राह्मणों के कर्म इतने महत्वपूर्ण हैं! ऐसे अपने हर कर्म को महत्वपूर्ण समझ कर करते हो? अपने को विधान के रचयिता समझ करके हर कर्म करना है। सभी रीति-रस्म कब से और किन्हों द्वारा शुरू होते हैं, जो फिर सारे कल्प में चलते आते हैं? इस समय आप ब्राह्मणों की जो रीति-रस्म, रिवाज प्रैक्टिकल जीवन के रूप में चलता है वह सदा के लिये अनादि विधान बन जाता है, ऐसे समझ कर हर कर्म करने से कभी भी अलबेलापन नहीं आवेगा। इस विधिपूर्वक स्मृतिस्वरूप होकर चलना है। इतनी बड़ी जिम्मेवारी समझ कर कर्म करना है-यह स्मृति रहती है? संगमयुग की यही विशेषता है जो हरेक श्रेष्ठ आत्मा को जिम्मेवारी मिली हुई है। ऐसे नहीं कि किन्हीं विशेष आत्माओं की जिम्मेवारी है, हम उन्हों के बनाये हुये विधान पर चलने वाले हैं। नहीं, हरेक आत्मा विधान बनाने वाली है, इस निश्चय से हर कर्म की सम्पूर्ण सिद्धि को पा सकेंगे। क्योंकि अपने को विधान के रचयिता समझ कर हर कर्म यथार्थ विधि से करेंगे। यथार्थ विधि की सम्पूर्ण सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। सिद्धि को पाने के लिए सिर्फ एक बात बुद्धि में स्पष्ट आ जाये तो सहज ही विधि को पा सकते हो। वह कौनसी बात? यह स्मृति भी विस्मृति में क्यों आ जाती है? निमित्त क्या बात बनती है? सिर्फ एक युक्ति आ जाये तो विस्मृति से सदा के लिए सहज ही मुक्त हो सकते हैं, वह कौनसी युक्ति है? कोई भी बात सामने विघ्न रूप में आती है, इस आई हुई बात को परिवर्तन करना – यह युक्ति अ जाये तो सदा विघ्नों से मुक्त हो सकते हैं। विस्मृति के कारण स्मृति, वृत्ति, दृष्टि और संपर्क बनता है। इन सभी को परिवर्तन करना आ जाये तो परिपक्वता आ जावेगी। कोई भी व्यर्थ स्मृति आती है, देह वा देह के संबंध, देह के पदार्थों की स्मृति को परिवर्तन करना आ जाये तो परिपक्व स्थिति नहीं बन जायेगी? ऐसे ही वृत्ति वा दृष्टि को परिवर्तन करना आ जाये, संपर्क का परिवर्तन करना आ जाये तो सम्पूर्णता के समीप आ जावेंगे ना। परिवर्तन करने का तरीका नहीं आता है। देह की दृष्टि के बजाय देही की दृष्टि परिवर्तन करना, व्यक्त संपर्क को अव्यक्त-अलौकिक संपर्क में परिवर्तन करना – इसी में ही कमी होने से संपूर्ण स्टेज को नहीं पा सकते। देखना चाहिए कि प्रकृति में भी परिवर्तन करने की शक्ति है। साईंस प्रकृति की शक्ति है। जब प्रकृति की शक्ति साईंस वस्तु को एक सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकती है। गर्म को शीतल, शीतल को गर्म बना सकती है। साईंस में यह शक्ति है ना। गर्म वातावरण को शीतल और शीतल वातावरण को गर्म बना देती है। प्रकृति की पावर वस्तु को परिवर्तन कर सकती है। तो परमात्म-शक्ति या श्रेष्ठ आत्मा की शक्ति अपनी दृष्टि, वृत्ति को परिवर्तन नहीं कर पाती है? अपनी ही वृत्ति, अपनी ही दृष्टि परिवर्तन न कर सकने के कारण अपने लिये विघ्न रूप बन जाते हैं। जबकि प्रकृति आपकी रचना है, आप तो मास्टर रचयिता हो ना। तो सोचो, जब मेरी रचना में यह पावर है और मुझ मास्टर रचयिता में यह पावर नहीं हो, यह श्रेष्ठ आत्मा का लक्षण है? आज प्रकृति की पावर एक सेकेण्ड में जो चाहे वह प्रैक्टिकल में करके दिखाती है। इसलिए आज की भटकी हुई आत्माएं परमात्म-शक्ति ईश्वरीय शक्ति वा साईंलेन्स की शक्ति को प्रैक्टिकल सबूत रूप में अर्थात् प्रमाण रूप में देखना चाहते हैं। कोई अपकार करे, आप एक सेकेण्ड में अपकार को उपकार में परिवर्तित कर लो। कोई अपने संस्कार वा स्वभाव के रूप में आपके सामने परीक्षा के रूप में आवे लेकिन आप सेकेण्ड में अपने श्रेष्ठ संस्कार, एक की स्मृति से ऐसी आत्मा के प्रति भी रहमदिल के संस्कार वा स्वभाव धारण कर सकते हो। कोई देहधारी दृष्टि से सामने आये आप एक सेकेण्ड में उनकी दृष्टि को आत्मिक दृष्टि में परिवर्तित कर लो। कोई गिराने की वृत्ति से, वा अपने संगदोष में लाने की दृष्टि से सामने आवे तो आप उनको सदा श्रेष्ठ संग के आधार से उसको भी संगदोष से निकाल श्रेष्ठ संग लगाने वाले बना दो। ऐसी परिवर्तन करने की युक्ति आने से कब भी विघ्न से हार नहीं खायेंगे। सर्व सम्पर्क में आने वाले आप की इस सूक्ष्म श्रेष्ठ सेवा पर बलिहार जावेंगे। जैसे बाप आत्माओं को परिवर्तित करते हैं तो बाप के लिये शुक्रिया गाते हो, बलिहार जाते हो, ऐसे सर्व सम्पर्क में आने वाली आत्माएं आप लोगों का शुक्रिया मानेंगी। एक ही सहज युक्ति है ना। वैसे भी कोई भी बात, कोई दृय्श्य, कोई भी चीज़ परिवर्तन तो होनी ही है। यह ड्रामा ही परिवर्तनशील है। लेकिन जैसे लोगों को कहते हो कि विनाश तो होना ही है, मुक्तिधाम में तो सभी को जाना ही है लेकिन अगर विनाश के पहले ज्ञान- योग के आधार से विकर्म विनाश कर देंगे तो सजाओं से छूट जावेंगे। जाना तो है ही, फिर भी जो करेगा सो पावेगा। इस प्रकार हर बात परिवर्तित होनी है लेकिन जिस समय आपके सामने वह बात विघ्न रूप बन जाती है उस समय अपनी शक्ति के आधार से एक सेकेण्ड में परिवर्तित कर दिया तो उस पुरूषार्थ करने का फल आपको प्राप्त हो जावेगा। परिवर्तन तो होना है लेकिन सही रूप में, श्रेष्ठ रूप में परिवर्तन करने से श्रेष्ठ प्राप्ति होती है। समय के आधार पर परिवर्तन हुआ तो प्राप्ति नहीं होगी। जो विघ्न आया है समय प्रमाण जावेगा ज़रूर लेकिन समय से पहले अपने परिवर्तन की शक्ति से पहले ही परिवर्तन कर लिया तो इसकी प्राप्ति आपको ही हो जावेगी। तो यह भी नहीं सोचना कि जो आया है वह आपेही चला जावेगा, वा इस आत्मा का जितना हिसाब-किताब होगा वह पूरा हो ही जावेगा वा समय आपे ही सभी को सिखलावेगा। नहीं, मैं करूँगा मैं पाऊंगा। समय करेगा तो आप नहीं पावेंगे। वह समय की विशेषता हुई, न कि आपकी। समय पर जो भी बात स्वत: होती है उसका गायन नहीं होता लेकिन बिना समय के आधार से कोई कार्य करता है तो कमाल गाई जाती है। मौसम के फल की इतनी वैल्यू नहीं होती है लेकिन उस फल को बगैर मौसम प्राप्त करो तो वैल्यू हो जाती है। तो समय आपेही सम्पूर्ण बना देगा, यह भी नहीं। सम्पूर्ण बन समय को समीप लाना है। समय रचना है, आप रचयिता हो। रचयिता रचना के आधार पर नहीं होते। रचयिता रचना को अधीन करते हैं। तो ऐसे परिवर्तन करने की शक्ति धारण करो। आज एक छोटी-सी मशीनरी चीज़ को कितना परिवर्तन कर देती है! बिल्कुल बेकार चीज़ काम वाली बना देती है, पुरानी को नया बना देती है। तो आपकी सर्वश्रेष्ठ शक्ति की सूक्ष्म मशीनरी अपनी वृत्ति, दृष्टि वा दूसरे की वृत्ति, दृष्टि को परिवर्तित नहीं कर सकती? फिर यह कब भी मुख से न निकलेगा कि यह हुआ, यह हुआ। कोई बहाना नहीं लगावेंगे। यह भी बहाने हैं। अपने आपको सेफ रखने के भिन्न-भिन्न बहाने होते हैं। सुनाया था ना कि संगमयुग में ब्राह्मणों को सभी से जास्ती यह बाजी आती है। इसी से ही परिवर्तन करना है। सर्व के संस्कारों को बदलना है, यही लक्ष्य ब्राह्मणों की जीवन का आधार है। दूसरे बदलें तब हम बदलें, ऐसे नहीं। हम बदल कर औरों को बदलें, सदा इसमें अपने को आगे करना चाहिए। दूसरा बदले न बदले, मैं बदल जाऊंगी। तो दूसरा स्वत: ही बदल जावेगा। तो आप बदलने वाले हो, विश्व को परिवर्तन करने वाले हो न कि कोई बात में स्वयं परिवर्तित होने वाले हो, ऐसा लक्ष्य सदा स्मृति में रखते हुए अपने आपको परिपक्व बनाओ। अब समय समीपता की घंटियां बजा रहा है। आप लोग भी जोर-शोर से बाप के परिचय का प्रत्यक्ष सबूत दिखाने का पुरूषार्थ करो। जो पालना ली है उस पालना का फल दिखाओ। व्यक्त साकार रूप द्वारा शिक्षा और पालना मिली। अव्यक्त रूप द्वारा भी बहुत ही शिक्षा की पालना मिली। अब कौनसा समय है? अभी तक पालना ही लेनी है कि पालना का फल दिखाना है? अब तो ड्रामा का यह पार्ट ही दिखा रहा है। जैसे सतयुग में मां-बाप पालना कर राजभाग के अधिकारी बनाकर, तख्तनशीन बनाकर राजतिलक दे अर्थात् ज़िम्मेवारी का तिलक दे स्वयं साक्षी हो देखते हैं। साथ होते भी साक्षी हो देखते हैं। तो यह विधान भी कहां से शुरू होगा? अब भी बापदादा इस विश्व सेवा के ज़िम्मेवारी का तिलक दे स्वयं साक्षी हो देखते हैं। साक्षी हैं ना। साथ होते भी साक्षी हैं। अभी का वर्ष और भी साक्षी बनने का है। यह अव्यक्त रूप का मिलन व्यक्त द्वारा भी कब तक! इसलिये इस नये वर्ष में अव्यक्त स्थिति में स्थित कराने की वा अनुभव कराने की ड्रिल सिखला रहे हैं, जो अव्यक्त बन अव्यक्त बाप से अव्यक्त मिलन मना सकें। कोई भी पार्ट सदा एक जैसे नहीं चलता, बदलता है आगे बढ़ाने लिए। तो अब बापदादा विशेष व्यक्त रूप में अव्यक्त मुलाकात करने का सहज वरदान दे रहे हैं। इस नये वर्ष के पहले मास को विशेष वरदान है ड्रामा प्लैन अनुसार, जो अव्यक्त स्थिति का, बाप से मीठी- मीठी रूह रूहान करने का पुरूषार्थ करेगा उस पुरुषार्थी आत्मा को वा लगन लगाने वाली आत्मा को, सच्चे दिल से बाप से प्राप्ति करने वाली आत्मा को सहज ही वरदान के रूप में अव्यक्ति अनोखे अनुभव प्राप्त होंगे। इसलिये अब व्यक्त द्वारा अव्यक्त मिलन भी समाप्त होता जावेगा। फिर क्या करेंगे? मिलन नहीं मनावेंगे? अल्पकाल के मिलन के बजाय सदाकाल के मिलन के अनुभवी बन जायेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे बिल्कुल समीप, सम्मुख मिलन मना रहे हैं। समझा? इस नये वर्ष में हरेक की लग्न के प्रमाण कई अलौकिक अनुभव हो सकते हैं। इसलिए विघ्न-विनाशक बन लग्न में मग्न रहना। लग्न से यह विघ्न भी अपना रूप बदल देंगे। विघ्न, विघ्न नहीं अनुभव होंगे लेकिन विघ्न विचित्र अनुभवीमूर्त बनाने के निमित्त बने हुए दिखाई देंगे। विघ्न भी एक खेल दिखाई देंगे। बड़ी बात छोटी-सी अनुभव होगी। ‘कैसे’ शब्द बदल ‘ऐसे’ हो जावेगा। ‘पता नहीं’ शब्द बदल ‘सभी पता है’ अर्थात् नॉलेजफुल बन जावेंगे। तो इस वर्ष को विशेष पुरूषार्थ में तीव्रता लाने का वर्ष समझ मनाना। स्वयं को परिवर्तित कर विश्व को परिवर्तन करने का विशेष वर्ष मनाना।
संगमयुगी श्रेष्ठ आत्माओं की ज़िम्मेवारी
प्रश्न 1: संगमयुग में श्रेष्ठ आत्माओं की ज़िम्मेवारी क्या है?
उत्तर: संगमयुग में हर ब्राह्मण आत्मा विधान रचयिता है, और उनके श्रेष्ठ कर्म पूरे कल्प के लिए विधान बन जाते हैं।
प्रश्न 2: किस प्रकार का कर्म ब्राह्मण आत्माओं को करना चाहिए?
उत्तर: ऐसा कर्म जो पूरे विश्व के लिए सही मार्गदर्शक बन सके और श्रेष्ठता की नींव डाले।
प्रश्न 3: स्मृति और विस्मृति में अंतर क्यों आता है?
उत्तर: विस्मृति तब आती है जब आत्मा अपनी मूल स्थिति को भूलकर देह-अभिमान में आ जाती है।
प्रश्न 4: विस्मृति से मुक्त होने की मुख्य युक्ति क्या है?
उत्तर: किसी भी परिस्थिति को परिवर्तन करने की शक्ति को जाग्रत करना और आत्मिक दृष्टि अपनाना।
प्रश्न 5: परिवर्तन की शक्ति का क्या महत्व है?
उत्तर: जैसे विज्ञान (साइंस) पदार्थों को तुरंत बदल सकता है, वैसे ही आत्मिक शक्ति दृष्टि और वृत्ति को परिवर्तित कर सकती है।
प्रश्न 6: क्या सिर्फ कुछ आत्माओं की ज़िम्मेवारी है विधान बनाना?
उत्तर: नहीं, हर ब्राह्मण आत्मा की ज़िम्मेवारी है कि वह विधान रचयिता बने और श्रेष्ठ कर्म करे।
प्रश्न 7: श्रेष्ठ आत्मा की विशेषता क्या होनी चाहिए?
उत्तर: अपनी वृत्ति, दृष्टि और संपर्क को आत्मिक दृष्टिकोण से परिवर्तित करने की क्षमता होनी चाहिए।
प्रश्न 8: परमात्म-शक्ति को प्रमाण रूप में दिखाने का क्या तरीका है?
उत्तर: जैसे परमात्मा आत्माओं को परिवर्तित करते हैं, वैसे ही हमें भी अपने श्रेष्ठ संस्कारों से दूसरों को प्रेरित करना चाहिए।
प्रश्न 9: सही परिवर्तन कैसे किया जा सकता है?
उत्तर: समय के आधार पर परिवर्तन की प्रतीक्षा करने के बजाय, अपनी आत्मिक शक्ति से तुरंत परिवर्तन करना चाहिए।
प्रश्न 10: संगमयुग में ब्राह्मण आत्माओं का मुख्य लक्ष्य क्या होना चाहिए?
उत्तर: स्वयं को परिवर्तन कर, विश्व को परिवर्तन करने का पुरुषार्थ करना और बाप के परिचय को प्रत्यक्ष प्रमाण रूप में दिखाना।
इस प्रकार, संगमयुग की श्रेष्ठ आत्माओं को अपनी ज़िम्मेवारी को स्वीकार कर, हर कर्म को विधिपूर्वक करते हुए विश्व कल्याण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
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