“मैं कैसे आया, कैसे मैंने ईश्वर को पहचाना”
1. बचपन की धार्मिक यात्रा
मैं एक ब्राह्मण परिवार में जन्मा।
बचपन से ही जब होश संभाला, हमारी दादी जी हमें रामायण, भागवत जैसे धार्मिक ग्रंथ पढ़ने को देतीं। मैं पढ़ना जानता था, इसलिए मुझे कहा जाता – “पढ़कर सुनाओ।”
माताएं-बहनें, पड़ोस की बुढ़िया इकट्ठी होतीं, और मैं उनको रामायण सुनाता। जब रामायण खत्म होती, तो भागवत, फिर कोई और ग्रंथ – ऐसा चलता रहा।
स्कूल से आने के बाद सत्संग कराना, पढ़ना-पढ़ाना यही मेरी दिनचर्या थी।
नेचुरल स्वभाव से मैंने एक छोटा सा मंदिर भी बना लिया था, जहां मैं पूजा करता था – क्योंकि ब्राह्मण होने के नाते यह हमारा नियम था।
मैं स्कूल भी जाता था तो बड़े तिलक लगाकर, लंबी चोटी के साथ जाता।
परमात्मा से मिलने की स्वाभाविक इच्छा थी, लेकिन तब तक मेरी समझ यही थी कि भगवान यही हैं – जिन्हें पूजा, जाप, आरती और कथा से पाया जा सकता है।
2. पहली झलक संदेह की
यह यात्रा 12वीं क्लास तक यूं ही चलती रही।
जब मैं एक प्राइवेट कॉलेज से 12वीं कर रहा था, एक इंग्लिश लेक्चरर ने एक कविता पढ़ाते हुए कहा –
“God does not need your service.”
ये वाक्य मेरे मन में घर कर गया।
और उसी दिन मेरे जीवन की दिशा बदल गई।
लंबी चोटी कटवा दी, पूजा-पाठ छोड़ दिया। यह बदलाव इतना अप्रत्याशित था कि परिवार वाले भी यकीन नहीं कर पाए।
3. दर्शनशास्त्र से परमात्मा की खोज
एम.ए. में जब मैंने हिंदी विषय चुना, तो मुझे संत साहित्य और दर्शनशास्त्र का अध्ययन करना पड़ा – सूरदास, तुलसीदास, रविदास जैसे संतों की भक्ति भावनाएं पढ़ीं।
वहां फिर से एक बात उठी –
“भगवान को शीश दो, तभी वो मिलेंगे।”
मन में फिर से वही पुरानी इच्छा जागी – भगवान को ढूंढने की।
इस बीच मैं दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गया।
4. धोखाधड़ी और नए रास्ते की शुरुआत
एक चिटफंड कंपनी की वजह से मुझे कोलकाता जाना पड़ा – एक रिश्तेदार और मित्र के चक्कर में।
हम दो ग्रुप में बंटे – एक RBI की रिपोर्टिंग के लिए और दूसरा कंपनी के एनुअल प्रोग्राम में।
मेरे साथ एक ब्रह्माकुमार भाई थे – और उन्होंने पूरे रास्ते कुछ न कुछ बोलते रहे।
मैं सुनना नहीं चाहता था, लेकिन वो बोले जा रहे थे।
5. ब्रह्माकुमारियों से पहला संपर्क
कोलकाता पहुँचते ही उन्होंने ब्रह्माकुमारी सेंटर फोन किया – नाश्ते की व्यवस्था के लिए।
मैंने भी साथ चलने की बात कह दी – सोचा जैसे गुरुद्वारे में लंगर होता है, वैसा ही होगा।
नाश्ते के बाद उन्होंने पूछा – “प्रदर्शनी देखोगे?”
मैं मना नहीं कर सका।
चित्रों के माध्यम से एक बहन समझा रही थी, लेकिन मैं फिर भी ध्यान नहीं दे रहा था।
तभी उसने मुझे रोका और कहा –
“भगवान जब अकल बाँट रहा था, तब तुम कहाँ सो रहे थे?”
यही बात जैसे तीर की तरह लगी। यहीं से अंदर कुछ बदलने लगा।
6. सेवन डेज कोर्स – कुछ समझा नहीं, पर जाना ज़रूरी लगा
मैंने सेवन डेज कोर्स कर लिया, लेकिन भगवान का अनुभव नहीं हुआ।
मुझे लगा कुछ तो है, और बहनजी ने कहा – रोज क्लास आओ।
मैं आने लगा – लेकिन समझ नहीं आ रहा था।
मुझे सिर्फ एक बात समझ आई –
“मुझे भगवान से मिलना है।”
7. माउंट आबू की पहली यात्रा – आत्मा आत्मा आत्मा
गर्मियों की छुट्टियों में राजयोग शिविर में जाने का अवसर मिला।
गुड़गांव से माउंट आबू पहुंचा। वहां 200 के करीब भाई-बहन आए थे।
पूरे कैंप में एक ही बात – “आत्मा, आत्मा, आत्मा…”
हमने मज़ाक में कहा – ये तो हमें आत्मा बना देंगे।
फिर भी – “भगवान कहां है?” यही प्रश्न मन में गूंजता रहा।
8. मिलन की तैयारी – पहली सच्ची लगन
अब सर्दियों में बाबा मिलन का मौका आया।
मैंने पवित्रता के नियम नहीं अपनाए थे, इसलिए बहनजी ने मना कर दिया।
लेकिन एक भाई ने मुझे बैज देकर भेज दिया – जैसे मैं अहमदाबाद से आया हूँ।
मैं माउंट आबू पहुंचा – लेकिन सेंटर वालों ने पूछा – “आपके पास लेटर नहीं है?”
मैंने कहा – “नहीं।”
उन्होंने मुझे अंदर रखने से मना कर दिया।
धर्मशाला में भी जगह नहीं दी। बहुत मिन्नतों के बाद मुझे एक कमरा मिला।
9. वह दिन – जब परमात्मा को पहचाना
अब वो दिन आया – बाबा मिलन।
उस दिन सिर्फ 2000 भाई-बहन थे।
भीड़ नहीं थी – सच्चा सौभाग्य था।
ओम शांति भवन में मुरली चली – सुबह 6 बजे से 8 बजे तक।
फिर अनाउंसमेंट हुआ – हर ज़ोन को आधे-आधे घंटे में बाबा से मिलन का समय मिलेगा।
9:30 बजे – दिल्ली ज़ोन का समय।
हम 20-22 लोग थे।
गेट से होकर अंदर पहुंचे।
छोटी सी टेबल के पास दादी गुलज़ार बैठी थीं…