(02)-गीता में सांख्य योग सत्य/असत्य क्या
( प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
गीता में सांख्य योग सत्य /असत्य क्या
‘सांख्य’ का अर्थ है — संख्या द्वारा जानना, या तत्वों की गिनती द्वारा सच्चाई को समझना।
‘योग’ का अर्थ है — जुड़ना, विशेषकर आत्मा का परमात्मा से जुड़ना।
सांख्य योग वह विधा है जो आत्मा और शरीर के भेद को स्पष्ट करते हुए विवेक से यह निर्णय कराता है कि सत्य क्या है और असत्य क्या।
श्लोक 2.12 न त्वेव अहं जातु नासम् न त्वम् न इमे जनाधिपाः।
न च एव न भविष्यामः सर्वे वयम् अतः परम्॥
शब्दार्थ: न = नहीं त्व एव = निश्चित ही अहं = मैं जातु = कभी नासम् = नहीं था
त्वम् = तू न इमे = न ये जनाधिपाः = राजा लोग न च एव = और नहीं ही न भविष्यामः = हम नहीं होंगे
सर्वे वयम् = हम सब अतः परम् = इसके आगे भी
हिन्दी अनुवाद: न तो ऐसा कभी हुआ कि मैं नहीं था, न तुम नहीं थे, न ये राजा लोग नहीं थे; और आगे भी हम सब कभी नहीं रहेंगे, ऐसा नहीं होगा।
हम सदा से हैं, आगे भी रहेंगे ✘ आंशिक असत्य — आत्मा अविनाशी है, लेकिन सभी आत्माएँ एक समय पर एक्टिव नहीं होतीं
श्लोक 2.13 देहिनः अस्मिन् यथा देहे कौमारम् यौवनम् जरा।
तथा देहान्तर-प्राप्तिः धीः तत्र न मुह्यति॥
शब्दार्थ: देहिनः = embodied one (आत्मा) अस्मिन् देहे = इस शरीर में
यथा = जैसे कौमारम् = बचपन यौवनम् = जवानी
जरा = बुढ़ापा तथा = वैसे ही धीः = बुद्धिमान देहान्तर-प्राप्तिः = दूसरा शरीर प्राप्त करना
न मुह्यति = भ्रमित नहीं होता
हिन्दी अनुवाद: जैसे इस शरीर मेंआत्मा बचपन, जवानी और बुढ़ापे से गुजरती है, वैसे ही मृत्यु के बाद दूसरे शरीर कोप्राप्त होती है–ज्ञानी मनुष्य इसमें मोहित नहीं होता।आत्मा देह में बदलाव करती है
✔ सत्य – यह पुनर्जन्म का संकेत है
श्लोक 14 संस्कृत: मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
हिन्दी भावार्थ: हे कौन्तेय! इन्द्रियोंऔर विषयों के संपर्क से उत्पन्न सर्दी,गर्मी, सुख और दुख क्षणिक हैं– वे आते-जाते रहते हैं। इसलिए, हे भारतवंशी! उन्हें सहन करो।
शब्दार्थ: मात्रा-स्पर्शाः – इन्द्रियों और विषयों का संपर्क तु – लेकिन/निश्चयही
कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र अर्जुन
शीत-उष्ण-सुख-दुःखदाः – सर्दी, गर्मी, सुख और दुख देने वाले आगम-अपायिनः – आने-जाने वाले
अनित्याः – स्थायी नहीं, क्षणभंगुर तान् – उन्हें तितिक्षस्व– सहन करो
भारत – हे भारतवंशी अर्जुन श्लोक 2.15 संस्कृत: यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ हिन्दी अनुवाद:
हे पुरुषों में श्रेष्ठ! जो मनुष्य सुख-दुख में समान रहता है और उनसे विचलित नहीं होता, वह धीर पुरुष अमरत्व (मोक्ष) का अधिकारी बनता है।
शब्दार्थ: यं — जिसको हि — निश्चय ही न — नहीं व्यथयन्ति — विचलित करते एते — ये (सुख-दुख आदि) पुरुषम् — मनुष्य को
पुरुषर्षभ — हे श्रेष्ठ पुरुष (अर्जुन) समा-दुःख-सुखम् — सुख और दुःख में समान
धीरम् — धैर्यवान सः — वह अमृतत्वाय— अमरत्व (मोक्ष) के लिए कल्पते — योग्य होता है
श्लोक 2.16 संस्कृत: नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥
हिन्दी अनुवाद:असत्य का कोई अस्तित्व नहीं और सत्य का कभी अभाव नहीं होता। तत्व को जानने वाले ज्ञानी इन दोनों के सत्य स्वरूप को देख चुके हैं।
शब्दार्थ: न — नहीं असतः — असत्य का विद्यते — होता है
भावः — अस्तित्व न — नहीं अभावः — अभाव विद्यते — होता है
सतः — सत्य का उभयोः — दोनों का अपि — भी दृष्टः — देखा गया अन्तः — स्वरूप त्व — निश्चय ही
अनयोः — इन दोनों का तत्त्वदर्शिभिः — तत्व को जानने वालों द्वारा
श्लोक 2.17 संस्कृत: अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥
हिन्दी अनुवाद: जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है, उसे तू अविनाशी जान। इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता।
शब्दार्थ: अविनाशि — नाश न होने वाला तु — लेकिन तत् — उसे
विद्धि — जान येन — जिससे सर्वम् — समस्त इदम् — यह
ततम् — व्याप्त विनाशम् — विनाश अव्ययस्य — अक्षय (जो क्षीण नहीं होता)
अस्य — इसका न — नहीं कश्चित् — कोई भी कर्तुम् — करने में
अर्हति — सक्षम होता है
श्लोक 2.18 संस्कृत: अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
हिन्दी अनुवाद: ये शरीर निश्चित ही नाशवान हैं, लेकिन इनमें स्थित आत्मा नित्य, अविनाशी और अपरिमेय है — इसलिए, हे भारत! तू युद्ध कर।
शब्दार्थ: अन्तवन्तः — जिनका अंत होता है
इमे — ये देहाः — शरीर नित्यस्य — नित्य (शाश्वत) उक्ताः — कहे गए हैं
शरीरिणः — शरीर में स्थित आत्मा अनाशिनः — जो नाश नहीं होता अप्रमेयस्य — जिसे मापा नहीं जा सकता
तस्मात् — इसलिए युध्यस्व — युद्ध कर भारत — हे भारत (अर्जुन)
श्लोक 2.19 संस्कृत: य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥
हिन्दी अनुवाद: जो आत्मा को मारने वाला समझता है या मरा हुआ मानता है — वे दोनों ही नहीं जानते। आत्मा न किसी को मारती है, न मारी जाती है।
शब्दार्थ: यः — जो एनम्– इस(आत्माको) वेत्ति — जानता है
हन्तारम्–मारने वाला यः च — और जो एनम् — इसको मन्यते — मानता है
हतम् — मरा हुआ उभौ — दोनों तौ — वे न — नहीं विजानीतः– जानते हैं
न — नहीं अयम् — यह (आत्मा) हन्ति — मारती है न — नहीं हन्यते — मारी जाती है
श्लोक 2.20 संस्कृत: न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
हिन्दी अनुवाद: आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही कभी मरती है। यह न कभी उत्पन्न हुई है और न आगे होगी। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है; शरीर के नष्ट होने पर भी इसका नाश नहीं होता।
शब्दार्थ: न — नहीं जायते — जन्म लेती म्रियते — मरती वा — अथवा
कदाचित् — कभी नायम् — यह नहीं भूत्वा — होकर भविता — होगा वा — या न भूयः — फिर नहीं होता
अजः — अजन्मा नित्यः — शाश्वत शाश्वतः — स्थायी अयम् — यह पुराणः — सनातन न हन्यते — नष्ट नहीं होता
हन्यमाने — मारे जाते समय शरीरे — शरीर में
श्लोक 2.21 संस्कृत: वेत्त्येनं नित्यमवध्यं न हन्ति न हन्यते। कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥
हिन्दी अनुवाद: जो इस आत्मा को नित्य, अवध्य जानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है या मरवा सकता है?
शब्दार्थ: वेत्ति — जानता है एनम्– इस आत्मा को नित्यम् — सदा
अवध्यम् — अवध्य (जिसका वध नहीं हो सकता)
न हन्ति–न मारता है न हन्यते — न मारा जाता है
कथं — कैसे सः — वह पुरुषः — मनुष्य पार्थ — हे पार्थ (अर्जुन) कम् — किसको
घातयति –मरवाता है हन्ति — मारता है कम् — किसको श्लोक 2.22
संस्कृत: वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
हिन्दी अनुवाद: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को धारण करती है।
शब्दार्थ:वासांसि — वस्त्रों को जीर्णानि — पुराने यथा — जैसे विहाय — छोड़कर नवानि — नए गृह्णाति — ग्रहण करता है
नरः — मनुष्य अपराणि — अन्य तथा — वैसे ही शरीराणि — शरीरों को विहाय — त्यागकर जीर्णानि — पुराने
अन्यानि — अन्य संयाति — प्रवेश करता है नवानि — नए देही — आत्मा श्लोक 2.23 संस्कृत:
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
हिन्दी अनुवाद: इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती।
शब्दार्थ: न एनम् — इस (आत्मा को) नहीं छिन्दन्ति — काटते हैं
शस्त्राणि — शस्त्र न दहति — नहीं जलाती पावकः — अग्नि न च — और नहीं एनम् — इसे क्लेदयन्ति — गला सकते हैं
आपः — जल न शोषयति — नहीं सुखाता मारुतः — वायु श्लोक 2.24
संस्कृत: अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
हिन्दी अनुवाद: यह आत्मा अविच्छेद्य, अग्नि से न जलने योग्य, जल से अक्लेद्य और वायु से अशोष्य है। यह नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है।
शब्दार्थ: अच्छेद्यः — जिसे काटा नहीं जा सकता
अयम् — यह (आत्मा) अदाह्यः — जिसे जलाया नहीं जा सकता
अक्लेद्यः — जिसे गीला नहीं किया जा सकता अशोष्यः — जिसे सुखाया नहीं जा सकता
एव च — निश्चय ही नित्यः — सदा रहने वाला सर्वगतः — सब जगह विद्यमान स्थाणुः — स्थिर अचलः — अचल
सनातनः — सनातन, शाश्वत श्लोक 2.25 संस्कृत: अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
हिन्दी अनुवाद: यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य कही गई है — अतः इसे इस रूप में जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है।
शब्दार्थ: अव्यक्तः — जो इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता अयम् — यह अचिन्त्यः — जो चिन्तन से परे है
अविकार्यः — जिसमें कोई परिवर्तन नहीं उच्यते — कहा गया है तस्मात् — इसलिए
एवं — इस प्रकार विदित्वा — जानकर एनम् — इस आत्मा को न अनुशोचितुम् — शोक करने योग्य नहीं अर्हसि — तू है
श्लोक 2.26 संस्कृत: अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥
हिन्दी अनुवाद: यदि तू आत्मा को नित्य जन्म लेने वाला और सदा मरने वाला मानता है, तो भी, हे महाबाहो! तू शोक करने योग्य नहीं है।
शब्दार्थ: अथ — यदि च — और एनम् — इस आत्मा को नित्यजातम् — सदा जन्म लेने वाला नित्यं — सदा वा — या मन्यसे — मानता है
मृतम् — मरा हुआ तथापि — तब भी त्वं — तू महाबाहो — हे बलवान न एवम् — इस प्रकार नहीं शोचितुम् — शोक करने योग्य अर्हसि — तू है
श्लोक 2.27 संस्कृत: जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
हिन्दी अनुवाद: जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मरता है उसका जन्म निश्चित है — इसलिए अपरिहार्य वस्तु पर शोक नहीं करना चाहिए।
शब्दार्थ:जातस्य — जो जन्मा है
हि — निश्चय ही ध्रुवः — निश्चित मृत्युः — मृत्यु ध्रुवम् — निश्चित जन्म — जन्म मृतस्य — जो मरा है
च — और तस्मात् — इसलिए अपरिहार्ये — जिसे टाला नहीं जा सकता अर्थे — विषय में न त्वं — तू नहीं
शोचितुम् — शोक करना अर्हसि — योग्य है
श्लोक 2.28 संस्कृत: अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
हिन्दी अनुवाद: सभी जीव पहले अव्यक्त रूप में होते हैं, फिर प्रकट होते हैं, और अंत में पुनः अव्यक्त हो जाते हैं — तो फिर शोक किस बात का?
शब्दार्थ: अव्यक्तादीनि — अव्यक्त रूप से आरंभ भूतानि — जीव व्यक्तमध्यानि — बीच में प्रकट भारत — हे भारत अव्यक्तनिधनानि — अंत में अव्यक्त में विलीन
एव — ही तत्र — वहाँ का — क्या परिदेवना — शोक श्लोक 2.29
संस्कृत: आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम् आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
हिन्दी अनुवाद: कोई आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है, कोई उसे आश्चर्य की तरह सुनाता है, कोई आश्चर्य की तरह सुनता है — फिर भी कोई-कोई ही इसे जान पाता है।
शब्दार्थ: आश्चर्यवत् — आश्चर्य की भाँति पश्यति — देखता है
कश्चित् — कोई एनम् — इसे (आत्मा को) वदति — कहता है
तथैव — उसी तरह च — और अन्यः — दूसरा श्रृणोति — सुनता है
श्रुत्वा अपि — सुनकर भी एनम् — इस आत्मा को वेद — जानता है
न च एव — और नहीं भी कश्चित् — कोई श्लोक 2.30
संस्कृत:देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥
हिन्दी अनुवाद: यह आत्मा सभी शरीरों में नित्य और अवध्य है — इसलिए, हे भारत! तू सभी प्राणियों के लिए शोक करने योग्य नहीं है।
शब्दार्थ: देही — आत्मा (शरीरधारी) नित्यं — सदा अवध्यः — जिसका वध नहीं हो सकता
अयम् — यह देहे — शरीर में सर्वस्य — सबके भारत — हे भारत तस्मात् — इसलिए
सर्वाणि — सभी भूतानि — प्राणी न त्वं — तू नहीं शोचितुम् — शोक करने अर्हसि — योग्य है
1. प्रश्न: गीता में ‘सांख्य’ और ‘योग’ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
-
सांख्य का अर्थ है संख्या द्वारा ज्ञान, यानि तत्वों और कारणों की गिनती करके सच्चाई को समझना।
-
योग का अर्थ है जुड़ना—विशेष रूप से आत्मा का परमात्मा से एकात्म होना।
-
सांख्य‑योग वह मार्ग है जहाँ विवेकपूर्वक आत्मा और शरीर का भेद स्पष्ट कर यह जानने की क्षमता विकसित होती है कि सत्य क्या है और असत्य क्या।
2. प्रश्न: श्लोक 2.12 में क्या सत्य और क्या असत्य कहा गया है?
उत्तर:
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श्लोक कहता है कि आत्मा हमेशा से ही है—यह कभी उत्पन्न नहीं हुई, न कभी नहीं थी, और आगे भी नहीं जाएगी।
-
टिप्पणी: “आंशिक असत्य” क्योंकि आत्मा अविनाशी है, लेकिन सभी आत्माएँ एक ही समय में सक्रिय नहीं होतीं।
3. प्रश्न: श्लोक 2.13 किस सत्य की ओर संकेत करता है?
उत्तर:
-
आत्मा शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापे से गुजरती है, और बुद्धिमान व्यक्ति इसे मृत्यु के बाद भी दूसरे शरीर में प्रवेश मानकर भ्रमित नहीं होता।
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यह पुनर्जन्म (आत्मा के शरीर परिवर्तन) का संकेत देता है—इसलिए इसे ✔ सत्य माना गया है।
4. प्रश्न: श्लोक 2.14 हमें क्या सिखाता है?
उत्तर:
-
इन्द्रिय-संपर्क से उत्पन्न सुख-दुःख क्षणिक होते हैं।
-
अतः विवेकी व्यक्ति उन्हें सहन करता है, क्योंकि ये तात्कालिक और अनित्य हैं।
5. प्रश्न: श्लोक 2.15 में ‘समदुःखसुखम्’ का क्या महत्व है?
उत्तर:
-
“समदुःखसुखम्” का अर्थ है सुख और दुख में समानभाव बनाये रखना।
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ऐसा धीर पुरुष अमरत्व (मोक्ष) का अधिकारी बनता है—यह एक महत्वपूर्ण सत्य है।
6. प्रश्न: श्लोक 2.16 में सत्य-असत्य का विभाजन कैसे किया गया है?
उत्तर:
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कहा गया है: असत्य का अस्तित्व नहीं है, सत्य कभी किसी रूप में लुप्त नहीं होता।
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यह सत्य की शाश्वतता का स्पष्ट बोध है।
7. प्रश्न: श्लोक 2.17 में ‘अविनाशी’ विषयक क्या स्पष्ट हुआ?
उत्तर:
-
संपूर्ण जगत जिसका विस्तार है, वह अविनाशी है, जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता—यह आत्मा की अमरता और अक्षयता की बात करता है।
8. प्रश्न: श्लोक 2.18–2.19 में आत्मा और शरीर का क्या अंतर बताया गया है?
उत्तर:
-
शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा नित्य, अविनाशी और अपरिमेय है—इसलिए युद्ध करना (कर्तव्यपालन) उचित है।
-
आत्मा न मारती है, न मारी जाती है—यह नश्वर और अविनाश की स्थिति बताता है।
9. प्रश्न: श्लोक 2.20 के माध्यम से आत्मा की गुण‑विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
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आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है; यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश के बाद भी यह स्थित है।
10. प्रश्न: श्लोक 2.21 में ‘अवध्य’ ज्ञान से क्या ज्ञात होता है?
उत्तर:
-
जो आत्मा को नित्य एवं अवध्य समझता है, वह समझता ही नहीं कि वह मरा या मराया जा सकता है—इसमें आत्मा की अमरता का ज्ञान निहित है।
11. प्रश्न: श्लोक 2.22 में शरीर–आत्मा की तुलना कैसी की गयी है?
उत्तर:
-
पूती हुई वस्त्रें बदल कर नए वस्त्र धारण करने जैसे आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को धारण करती है—पुनर्जन्म का सूक्ष्म रूप।
12. प्रश्न: श्लोक 2.23–2.24 आत्मा की अमरता को किस प्रकार प्रचारित करते हैं?
उत्तर:
-
आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गला सकता है, न वायु सुखा सकती है।
-
यह अविच्छेद्य, अग्निदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, नित्य, सर्वगत, स्थिर, अचल और सनातन है।
13. प्रश्न: श्लोक 2.25 आत्मा की प्रकृति के बारे में क्या कहता है?
उत्तर:
-
आत्मा अव्यक्त (इन्द्रियपरे), अचिन्त्य, अविकार्य है—इसलिए इसे समझकर शोक न करना चाहिए।
14. प्रश्न: श्लोक 2.26–2.28 हमें क्या शिक्षा देते हैं?
उत्तर:
-
चाहे आत्मा को नित्यजात या मृत्युलोक मानो—पर शोक करना अवश्य नहीं, क्योंकि जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है।
-
यह जीवन–मरण चक्र का स्वाभाविक और अपरिहार्य क्रम है।
15. प्रश्न: श्लोक 2.29 में आत्मा को जानने की दुर्लभता क्यों बताई गयी है?
उत्तर:
-
आत्मा को अनुभव या श्रवण से देखा या सुना जा सकता है—लेकिन वास्तव में इसे जानना बेहद दुर्लभ है।
16. प्रश्न: श्लोक 2.30 में ‘सर्वदेही’ आत्मा का कौन‑सा सत्य उद्घाटित है?
उत्तर:
-
आत्मा सभी शरीरों में रहती है, यह अवध्य और निरंतर है—इसलिए इस पर शोक करना उचित नहीं।
✅ सारांश: सत्य / असत्य के दृष्टिकोण से गीता का सूत्र
तत्व | सत्य है | असत्य / आंशिक असत्य |
---|---|---|
आत्मा का नित्यत्व | ✔ | — |
आत्मा का अविनाश | ✔ | — |
पुनर्जन्म (शरीर परिवर्तन) | ✔ | — |
शरीर की नश्वरता | ✔ (अवश्य नश्वर) | — |
आत्मा की अडिगता | ✔ | — |
सांसारिक सुख–दुःख | ✔ (क्षणिक) | — |
तत्व‑ज्ञान की दुर्लभता | ✔ | — |
सभी आत्माएँ सदैव सक्रिय | — | ✘ आंशिक असत्य |
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