विश्व नाटक :-(12)”डार्विन का पछतावा — निरीश्वरवादी सोच ने कैसे छीन ली आत्मा की शांति?
(प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
डार्विन का पछतावा — निरीश्वरवादी सोच ने कैसे छीन ली आत्मा की शांति
डार्विन का पछतावा — निरीश्वरवादी सोच ने कैसे छीन ली आत्मा की शांति।
विज्ञान की भूल और मन की खालीपन की कहानी — विज्ञान ने कहाँ भूल की और मन में क्या खालीपन था, यह उसकी कहानी है।
मन संबंधी निरीश्वरवादी विचारों का क्षति कर प्रभाव — जो मन से समझते थे कि ईश्वर है ही नहीं, उन्होंने डार्विन के सिद्धांत को अपने निरीश्वरवाद का समर्थन मान लिया।
उन्होंने डार्विन के सिद्धांत के आधार पर अपने विचारों को जोड़ने की कोशिश की, लेकिन जब उन कड़ियों को ढूंढा जो मिसिंग थीं — वो नहीं मिलीं।
विज्ञान ने जीवन की व्याख्या करने की कोशिश की, पर आत्मा को भूल गया।
पाँचों तत्वों को तो समझा, परंतु आत्मा को नहीं।
डार्विन जैसे महान वैज्ञानिक ने भी अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया —
“ईश्वर से दूरी ने मेरे मन की संवेदनशीलता को नष्ट कर दिया।”
क्योंकि उनके पास ईश्वर की पहचान नहीं थी, इसलिए उनके मन की संवेदनशीलता खो गई।
वह सृष्टि के रहस्य खोजने की धुन में लग गए। उन्होंने बहुत परिश्रम किया, परंतु सारी कड़ियाँ जोड़ नहीं पाए।
डार्विन की आत्मस्वीकृति — “मैंने अपना सुख खो दिया।”
वे लिखते हैं — “पहले मुझे कविता, संगीत, चित्रकला और प्रकृति के सौंदर्य से आनंद मिलता था,
पर जब से मैं इस सिद्धांत के पीछे पड़ा, तब से सब निरस हो गया।
मेरा मन केवल नियम खोजने वाली मशीन बन गया।”
यह कथन दर्शाता है —
जब बुद्धि मात्र तथ्यों में रम जाती है और ईश्वर की अनुभूति खो देती है,
तो मनुष्य का आंतरिक सौंदर्य-बोध मुरझा जाता है।
उदाहरण:
जैसे एक कलाकार यदि केवल ब्रश और रंग के नियम समझे,
पर कला के भाव को महसूस न करे,
तो उसकी पेंटिंग में जान नहीं रहती।
भाव के बिना सृजन केवल यांत्रिकी रह जाता है।
ईश्वरहीन चिंतन = संवेदनाओं का क्षय
डार्विन स्वयं स्वीकारते हैं — “मेरा मस्तिष्क नियम खोजने की मशीन बन गया था, और यह सुख की हानि थी।”
वे कहते हैं — “इन अभिरुचियों की हानि, सुख की हानि है। यह हमारी प्रकृति के भावनात्मक भाग को दुर्बल कर देती है।”
यह कथन केवल उनका नहीं —
आज के पूरे आधुनिक मानव का दर्पण है।
जो मोबाइल, डेटा और प्रयोगशालाओं में तो व्यस्त है, पर भीतर से खाली है।
अंतिम समय में परिवर्तन
लेडी होप के अनुसार, अपने अंतिम समय में डार्विन फिर से ईश्वर की ओर लौटे।
वे बाइबल पढ़ते थे और धार्मिक गीत सुनना चाहते थे।
उन्होंने कहा — “लोगों ने मेरे अधूरे विचारों को धर्म बना लिया, पर अब मैं चाहता हूँ कि लोग फिर से ईश्वर की ओर लौटें।”
यह स्वीकारोक्ति बताती है —
सत्य से दूर बुद्धि अंत में परमात्मा की गोद में ही विश्राम पाती है।
🕉️ ब्रह्मा कुमारी दृष्टिकोण
बुद्धि की मशीन से स्मृति की मिसाल तक
साकार मुरली (18 नवंबर 1971) में शिव बाबा कहते हैं —
“ज्ञान सुनने से नहीं, याद करने से बुद्धि प्रबुद्ध होती है।
जितना ज्ञान का मंथन करेंगे, उतना प्रबुद्ध बनेंगे।
जो ईश्वर को भूलता है, उसकी बुद्धि मशीन बन जाती है।”
डार्विन का अनुभव इस मुरली को जीवंत कर देता है।
जब बुद्धि केवल विश्लेषण करती है, पर स्मृति में ईश्वर नहीं है —
तो वे प्रकाशहीन हो जाती है।
🌍 आधुनिक उदाहरण
तनाव, अवसाद और कृत्रिम सुख —
आज के युग में “Godless Intelligence” यानी भगवान रहित बुद्धिमत्ता ने मनुष्य को तेज़ तो बना दिया, पर शांत नहीं।
वह वैज्ञानिक, तकनीकी और फार्मूलों में व्यस्त है, पर भीतर से रिक्त है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), सोशल मीडिया और विज्ञान —
सब बाहरी प्रकाश हैं, पर भीतर अंधकार है।
साकार मुरली (2 जनवरी 1976) में बाबा ने कहा —
“आज का मनुष्य बहुत बुद्धिमान है, पर सुखी नहीं,
क्योंकि उसका भगवान से कनेक्शन टूट गया है।”
💫 ईश्वरीय ज्ञान — मन की पुनः स्थापना
जब आत्मा ईश्वर को पहचानती है,
तो वह फिर से संगीत सुनती है, प्रकृति को देखती है,
और जीवन के हर दृश्य में रचनाकार को महसूस करती है।
यह वही अनुभव है जो डार्विन को अंततः हुआ।
उन्होंने वैज्ञानिक की दृष्टि से सृष्टि को देखा,
पर अंत में दृष्टि परमात्मा की ओर मोड़ दी।
🕊️ निष्कर्ष
विज्ञान ने पदार्थ खोज लिया, पर आत्मा नहीं।
बुद्धि ने सूत्र खोजे, पर स्त्रोत नहीं।
अब परमात्मा स्वयं आकर कहते हैं —
“बच्चे, मन को मशीन मत बनाओ,
मन को स्मृति बनाओ — जो सदा मेरे संग रहे।”
जब विज्ञान ने कहा “ईश्वर नहीं,”
तब मनुष्य ने पाया “सुख नहीं।”
सच्चा विकास तब है, जब बुद्धि ईश्वर से जुड़ जाए।

