(21)त्रिमूर्ति का रहस्य शिव, ब्रह्मा और जगदम्बा।
त्रिमूर्ति का रहस्य — सृष्टि की पहली दिव्य परिवार कथा
(आधारित: साकार मुरली 3 जनवरी 1968, 6 मार्च 1968, 9 मार्च 1969, 25 मई 1969, 12 मार्च 1968, अव्यक्त मुरली 21 जनवरी 1969, 22 फरवरी 1971, 18 जनवरी 1969)
त्रिमूर्ति कौन हैं?
हम जानते हैं “त्रिमूर्ति भगवान” का उल्लेख प्राचीन धर्मग्रंथों में आता है —
ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता, और शंकर संहारक।
परंतु ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय ज्ञान में त्रिमूर्ति का अर्थ एक गहरे आध्यात्मिक रहस्य के रूप में बताया गया है।
त्रिमूर्ति का अर्थ केवल तीन देवता नहीं, बल्कि ईश्वरीय कार्य की तीन दिव्य धाराएँ हैं —
संकल्प, सृष्टि और पालन।
त्रिमूर्ति में कौन हैं?
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शिव बाबा – बीज स्वरूप परमात्मा
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ब्रह्मा बाबा – प्रथम रथ और सृष्टिकर्ता
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जगत अंबा (मम्मा सरस्वती) – पालन और शक्ति का स्वरूप
1. शिव बाबा – सृष्टि के बीज स्वरूप परमात्मा
साकार मुरली – 3 जनवरी 1968
“त्रिमूर्ति में शिव है परमात्मा, ब्रह्मा है पहला रथ और जगत अंबा है मातृ शक्ति।”
शिव बाबा निराकार ज्ञान, प्रेम और शक्ति के सागर हैं।
वह स्वयं शरीर धारी नहीं हैं, परंतु सृष्टि की योजना उन्हीं के संकल्प से आरंभ होती है।
अव्यक्त मुरली 11 फरवरी 1969:
“मैं ही सृष्टि करता हूं, परंतु रचना रचने के लिए ब्रह्मा का माध्यम लेता हूं।”
उदाहरण:
जैसे कोई वैज्ञानिक पहले संकल्प करता है — “मुझे यह प्रयोग बनाना है।”
परंतु उसे उपकरणों की आवश्यकता होती है।
वैसे ही शिव बाबा संकल्प करते हैं, और कार्य होता है ब्रह्मा के माध्यम से।
2. ब्रह्मा बाबा – सृष्टि के प्रथम पिता, ईश्वरीय कार्य का माध्यम
साकार मुरली – 6 मार्च 1968:
“शिव बाबा इस ब्रह्मा तन में प्रवेश कर सृष्टि रचते हैं, इसलिए इन्हें प्रजापिता ब्रह्मा कहा जाता है।”
ब्रह्मा बाबा वह आत्मा हैं जिसके माध्यम से शिव बाबा ज्ञान की सृष्टि आरंभ करते हैं।
उनका कार्य है —
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परमात्मा के संकल्प को रूप देना
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ईश्वरीय परिवार का स्थूल आधार बनना
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आत्माओं को नवजीवन प्रदान करना
उदाहरण:
जैसे बीज धरती में बोया जाता है और उससे तना निकलता है,
वैसे ही शिव बाबा का ज्ञान बीज ब्रह्मा बाबा के माध्यम से तना बनता है।
3. जगत अंबा (मम्मा सरस्वती) – पालन और शक्ति की मूर्ति
साकार मुरली – 25 मई 1969:
“जगदंबा ही सबकी मां है। ब्रह्मा पिता, जगदंबा माता — दोनों मिलकर नई सृष्टि की पालना करते हैं।”
मम्मा ममता, मर्यादा और मृदुता की मूर्ति हैं।
उनका मातृ भाव ही ईश्वरीय परिवार को स्थिर और समृद्ध बनाता है।
उदाहरण:
जैसे पिता शिक्षा देता है, और माता उसी शिक्षा को प्रेम और व्यवहार में ढालती है।
वैसे ही ब्रह्मा ने ज्ञान सिखाया और मम्मा ने उस ज्ञान को जीवन का रूप दिया।
त्रिमूर्ति का संयुक्त कार्य — ज्ञान, प्रेम और शक्ति का संगम
साकार मुरली – 9 मार्च 1969:
“त्रिमूर्ति द्वारा ही बाप का कार्य संपन्न होता है। शिव बाबा सिखाते हैं, ब्रह्मा साकार करते हैं, जगदंबा पालती है।”
उदाहरण:
सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी मिलकर जीवन रचते हैं।
सूर्य देता है प्रकाश, चंद्रमा शीतलता और पृथ्वी जन्म।
इसी प्रकार —
शिव ज्ञान का प्रकाश देते हैं, ब्रह्मा व्यवहार में लाते हैं, और मम्मा ममता से पालन करती हैं।
त्रिमूर्ति — प्रथम दिव्य परिवार का प्रतीक
अव्यक्त मुरली – 21 जनवरी 1969:
“शिव बाबा, ब्रह्मा बाबा और जगत अंबा त्रिमूर्ति प्रथम ईश्वरीय परिवार का प्रतीक हैं।”
उनके माध्यम से आरंभ हुआ ब्राह्मण कुल,
जो आगे चलकर देव कुल बनता है।
उदाहरण:
जैसे ब्रह्मा और सरस्वती मिलकर आगे चलकर लक्ष्मी-नारायण बनते हैं,
वैसे ही यह त्रिमूर्ति आगे चलकर स्वर्ग के प्रथम दिव्य परिवार के रूप में प्रकट होती है।
त्रिमूर्ति का आत्मिक अर्थ
साकार मुरली – 12 मार्च 1968:
“मैं तीनों के द्वारा कार्य करता हूं — त्रिमूर्ति मेरा त्रिकाल दर्शन है।”
त्रिमूर्ति कोई मूर्ति नहीं, बल्कि
सृष्टि, स्थिति और संहार के तीन संयुक्त कार्य हैं।
त्रिमूर्ति की आत्मिक शिक्षा — हम भी बनें त्रिमूर्ति समान
अव्यक्त मुरली – 22 फरवरी 1971:
“जैसे मैं त्रिमूर्ति रूप से कार्य करता हूं, वैसे ही तुम भी अपने में तीन गुण धारण करो — ज्ञान, प्रेम और शक्ति।”
हर ब्राह्मण आत्मा को बनना है —
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शिव समान ज्ञानी
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ब्रह्मा समान मर्यादावान
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जगत अंबा समान ममतामयी
निष्कर्ष — सृष्टि की पहली दिव्य परिवार कथा
अव्यक्त मुरली – 18 जनवरी 1969:
“त्रिमूर्ति मेरा ईश्वरीय परिवार है जिसमें पिता, माता और संतान सम्मिलित हैं।”
यह है सृष्टि की पहली दिव्य परिवार कथा —
जहां बुद्धि में ज्ञान, हृदय में प्रेम, और जीवन में मर्यादा है।
प्रश्नोत्तर (Questions & Answers based on Murli 01-05-1984)
प्रश्न 1:बापदादा ने “विस्तार” और “सार स्वरूप” में क्या अंतर बताया है?
उत्तर:बापदादा ने कहा कि विस्तार इस ईश्वरीय वृक्ष का श्रृंगार है, जबकि सार स्वरूप बच्चे इस वृक्ष के फल स्वरूप हैं।
विस्तार वैराइटी रूप होता है, जो रौनक बढ़ाता है, लेकिन मूल्य सार स्वरूप में है क्योंकि फल ही शक्तिशाली होता है।
अर्थात्, बाहरी सेवा और विस्तार आवश्यक है, परंतु आत्मा का सार — उसकी स्थिति, शक्ति और अनुभव — सबसे अधिक मूल्यवान है।
प्रश्न 2:बापदादा ने किसे “फल स्वरूप” और किसे “विस्तार स्वरूप” कहा?
उत्तर:सार स्वरूप बच्चे वे हैं जो शक्तिशाली, स्थिर और अनुभवी आत्माएं हैं — ये “फल स्वरूप” कहलाते हैं।
जबकि विस्तार स्वरूप बच्चे वे हैं जो वैराइटी रूप में सेवाएं करते हैं, वृक्ष के पत्तों और फूलों की तरह।
दोनों आवश्यक हैं, परंतु फल (सार स्वरूप) ही शक्ति का आधार है।
प्रश्न 3:देहली (दिल्ली) और कर्नाटक की आत्माओं की विशेषता क्या बताई गई?
उत्तर:बापदादा ने कहा कि देहली सेवा का आदि स्थान है, जहाँ से ईश्वरीय सेवा का बीज जमुना किनारे पर बोया गया।
इसलिए देहली निवासियों पर “शक्तिशाली रहने की जिम्मेदारी का ताज” है।
वहीं कर्नाटक की आत्माएं “अति भावना और अति स्नेह” की प्रतीक हैं।
वे श्रद्धा और निर्मानता के साथ सेवा में बैलेंस रखती हैं — यही उनकी विशेषता है।
प्रश्न 4:फरिश्ता बनने के लिए बापदादा ने कौन-सा बन्धन छोड़ने की बात कही?
उत्तर:बापदादा ने कहा — “फरिश्ता बनने के लिए मन के बन्धनों से मुक्त बनो।”
मन के व्यर्थ संकल्प भी फरिश्ता नहीं बनने देते।
फरिश्ता वह है जिसका मन के व्यर्थ संकल्पों से भी कोई रिश्ता नहीं।
प्रश्न 5:समान स्वरूप बनने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर:समान स्वरूप बनने के लिए बाप के समान शक्तिशाली, स्वच्छ और खुश रहने की स्थिति आवश्यक है।
जैसे बाप सदा स्वच्छ और सुखी हैं, वैसे ही बच्चे भी सदा खुशी के झूले में झूलते रहें।
समान स्वरूप बनने का अर्थ है — “बाप समान सर्वशक्तिवान और अशरीरी स्थिति में स्थित रहना।”
प्रश्न 6:“वरदान याद रहना अर्थात् वरदाता याद रहना” — इसका क्या अर्थ है?
उत्तर:इसका अर्थ है कि जब आत्मा अपने वरदान को सदा स्मृति में रखती है,
तो वही स्मृति उसे वरदाता (शिव बाबा) की याद में स्थिर रखती है।
वरदान का स्मरण ही सुरक्षा का साधन बन जाता है — जिससे सहज स्थिति बनी रहती है।
प्रश्न 7:बापदादा ने सदा ‘गॉडली मार्निंग’ कहने का अर्थ क्या बताया?
उत्तर:बापदादा ने कहा — गुड मॉर्निंग नहीं, गॉडली मॉर्निंग कहो,
क्योंकि तुमने रात भी गॉड के साथ बिताई और सुबह भी गॉड के साथ आरंभ की।
अर्थात्, हर सेकेण्ड, हर संकल्प “गॉड की याद” से भरपूर हो तो जीवन सदा “गुड” बन जाता है।
प्रश्न 8:श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा की पहचान क्या है?
उत्तर:श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा वह है जिसका भाग्यविधाता परमात्मा अपना बन गया है।
ऐसी आत्मा सदा रूहानी नशे में रहती है और पुरानी दुनिया की आकर्षण भूल जाती है।
वह सदा देही-अभिमानी और श्रेष्ठ संकल्पों में स्थित रहती है।
प्रश्न 9:“नीचे आने के दिन समाप्त हुए, अभी झूलने के दिन हैं” — इस वाक्य का क्या अर्थ है?
उत्तर:इसका अर्थ है कि अब समय नीचे (मायिक स्थिति में) गिरने का नहीं,
बल्कि खुशी, प्रेम, और ज्ञान के झूले में झूलने का है।
अर्थात्, अब आत्मा को सदा उच्च स्थिति में रहना है — नीचे (शरीर, दुख, अथवा देहभान) में नहीं उतरना।
प्रश्न 10:बापदादा ने देहली और कर्नाटक की आत्माओं को क्या शुभ संदेश दिया?
उत्तर:देहली वालों को — “सदा शक्तिशाली रहो, क्योंकि तुम सेवा और राज्य दोनों के फाउण्डेशन हो।”
कर्नाटक वालों को — “भावना और निर्मानता दोनों को सदा साथ रखो, यही सफलता का रहस्य है।”
दोनों राज्यों की आत्माओं से कहा — “सेवा की नाव तभी सफल होगी जब भावना और पद में बैलेंस होगा।”
निष्कर्ष (Summary):
इस मुरली का मुख्य संदेश है —
“विस्तार में रहो, पर सार स्वरूप बनो।”
बापदादा हमें सिखा रहे हैं कि सेवा, विस्तार और वैराइटी आवश्यक हैं,
परंतु आत्मा की सार स्थिति — अर्थात् शक्ति, स्थिरता और समानता — सबसे बड़ी उपलब्धि है।
Disclaimer (वीडियो डिस्क्लेमर):
यह वीडियो ब्रह्माकुमारीज़ (Brahma Kumaris) की मुरलियों एवं आध्यात्मिक शिक्षाओं पर आधारित है।
इसका उद्देश्य केवल ईश्वरीय ज्ञान, आत्म-जागृति और सकारात्मक परिवर्तन को प्रेरित करना है।
यह किसी भी धर्म, व्यक्ति या संस्था की आलोचना नहीं करता।
कृपया इसे मनन, ध्यान और आत्म-चिंतन के भाव से सुनें।

