Avyakta Murli”09-05-1972

Short Questions & Answers Are given below (लघु प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

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 अपने फीचर से फ्यूचर दिखाओ

सभी सदा स्नेही हैं? जैसे बाप दादा सदा बच्चों के स्नेही और सहयोगी हैं, सभी रूपों से, सभी रीति से सदा स्नेही और सहयोगी हैं, वैसे ही बच्चे भी सभी रूपों से, हर रीति से बाप समान सदा स्नेही और सहयोगी है? सदा सहयोगी वा सदा स्नेही उसको कहते हैं जिसका एक सेकेण्ड भी बाप के साथ स्नेह न टूटे वा एक सेकेण्ड, एक संकल्प भी सिवाए बाप के सहयोगी बनने के न जाये। तो ऐसे अपने को सदा स्नेही और सहयोगी समझते हो वा अनुभव करते हो? बापदादा के स्नेह का सबूत वा प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई देता है। तो बच्चे भी जो बाप समान हैं उन्हों का भी स्नेह और सहयोग का सबूत वा प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई दे रहा है। स्नेही आत्मा का स्नेह कब छिप नहीं सकता। कितना भी कोई अपने स्नेह को छिपाने चाहे लेकिन स्नेह कब गुप्त नहीं रहता। स्नेह किस-न-किस रूप में, किस-न-किस कर्त्तव्य से वा सूरत से दिखाई अवश्य देता है। तो अपनी सूरत को दर्पण में देखना है कि मेरी सूरत से स्नेही बाप की सीरत दिखाई देती है? जैसे अपनी सूरत को स्थूल आईना में देखते हो, वैसे ही रोज अमृतवेले अपने आपको इस सूक्ष्म दर्पण में देखते हो? जैसे लक्षणों से हर आत्मा के लक्ष्य का मालूम पड़ जाता है वा जैसा लक्ष्य होता है वैसे लक्षण स्वत: ही होते हैं। तो ऐसे अपने लक्षणों से लक्ष्य प्रत्यक्ष रूप में कहां तक दिखाते हो, अपने आपको चेक करते हो? किसी भी आत्मा को अपने फीचर्स से उस आत्मा का वा अपना फ्यूचर दिखा सकते हो? लेक्चर से फीचर्स दिखाना तो आम बात है लेकिन फीचर्स से फ्यूचर दिखाना – यही अलौकिक आत्माओं की अलौकिकता है। ऐसे मेरे फीचर्स बने हैं, यह दर्पण में देखते हो? जैसे स्थूल सूरत है, श्रृंगार से अगर सूरत में कोई देखे तो पहले विशेष अटेन्शन बिन्दी के ऊपर जायेगा। वैसे जो बिन्दी- स्वरूप में स्थित रहते हैं अर्थात् अपने को इन धारणाओं के श्रृंगार से सजाते हैं, ऐसे श्रृंगारी हुई मूरत के तरफ देखते हुए सभी का ध्यान किस तरफ जायेगा? मस्तक में आत्मा बिन्दी तरफ। ऐसे ही कोई भी आत्मा आप लोगों के सम्मुख जब आती है तो उन्हों का ध्यान आपके अविनाशी तिलक की तरफ आकर्षित हो। वह भी तब होगा जब स्वयं सदा तिलकधारी हैं। अगर स्वयं ही तिलकधारी नहीं तो दूसरों को आपका अविनाशी तिलक दिखाई नहीं दे सकता। जैसे बाप का बच्चों प्रति इतना स्नेह है जो सारी सृष्टि की आत्मायें बच्चे होते हुए भी, जिन्होंने प्रीत की रीति निभाई है वा प्रीत-बुद्धि बने हैं, ऐसे प्रीत की रीति निभाने वालों से इतनी प्रीत की रीति निभाई है जो अन्य सभी आत्माओं को अल्पकाल का सुख प्राप्त होता है लेकिन प्रीत की रीति निभाने वाली आत्माओं को सारे विश्व के सर्व सुखों की प्राप्ति सदाकाल के लिए होती है। सभी को मुक्तिधाम में बिठाकर प्रीत की रीति निभाने वाले बच्चों को विश्व का राज्य भाग्य प्राप्त कराते हैं। ऐसे स्नेही बच्चों के सिवाए और कोई से भी सर्व सम्बन्धों से सर्व प्राप्ति का पार्ट नहीं। ऐसे प्रीत निभाने वाले बच्चों के दिन-रात गुण-गान करते हैं। जिससे अति स्नेह होता है तो उस स्नेह के लिए सभी को किनारे कर सभी-कुछ उनके अर्पण करते हैं, यह है स्नेह का सबूत। तो सदा स्नेही और सहयोगी बच्चों के सिवाए अन्य सभी आत्माओं को मुक्तिधाम में किनारे कर देते हैं। तो जैसे बाप स्नेह का प्रत्यक्ष सबूत दिखा रहे हैं, ऐसे अपने आप से पूछो – ‘‘सर्व सम्बन्ध, सर्व आकर्षण करने वाली वस्तुओं को अपनी बुद्धि से किनारे किया है? सर्व रूपों से, सर्व सम्बन्धों से, हर रीति से सभी-कुछ बाप के अर्पण किया है?’’ सिवाए बाप के कर्त्तव्य के एक सेकेण्ड भी और कोई व्यर्थ कार्य में अपना सहयोग तो नहीं देते हो? अगर स्नेह अर्थात् योग है तो सहयोग भी है। जहां योग है वहां सहयोग है। एक बाप से ही योग है तो सहयोग भी एक के ही साथ है। योगी अर्थात् सहयोगी। तो सहयोग से योग को देख सकते हो, योग से सहयोग को देख सकते हो। अगर कोई भी व्यर्थ कर्म में सहयोगी बनते हो तो बाप के सदा सहयोगी हुए? जो पहला-पहला वायदा किया हुआ है उसको सदा स्मृति में रखते हुए हर कर्म करते हो कि भक्तों मुआफ़िक कहां-कहां बच्चे भी बाप से ठगी तो नहीं करते हो? भक्तों को कहते हो ना – भक्त ठगत हैं। तो आप लोग भी ठगत तो नहीं बनते हो? अगर तेरे को मेरा समझ काम में लगाते हो तो ठगत हुए ना। कहना एक और करना दूसरा – इसको क्या कहा जाता है? कहते तो यही हो ना कि तन-मन-धन सब तेरा। जब तेरा हो गया फिर आपका उस पर अपना अधिकार कहां से आया? जब अधिकार नहीं तो उसको अपनी मन-मत से काम में कैसे लगा सकते हो? संकल्प को, समय को, श्वांस को, ज्ञान-धन को, स्थूल तन को अगर कोई भी एक खज़ाने को मनमत से व्यर्थ भी गंवाते हो तो ठगत नहीं हुए? जन्म-जन्म के संस्कारों वश हो जाते हैं। यह कहां तक रीति चलती रहेगी? जो बात स्वयं को भी प्रिय नहीं लगती तो सोचना चाहिए — जो मुझे ही प्रिय नहीं लगती वह बाप को प्रिय कैसे लग सकती है? सदा स्नेही के प्रति जो अति प्रिय चीज़ होती है वही दी जाती है। तो अपने आप से पूछो कि कहां तक प्रीत की रीति निभाने वाले बने हैं? अपने को सदा हाइएस्ट और होलीएस्ट समझकर चलते हो? जो हाइएस्ट समझकर चलते हैं उन्हों का एक-एक कर्म, एक-एक बोल इतना ही हाइएस्ट होता है जितना बाप हाइएस्ट अर्थात् ऊंच ते ऊंच है। बाप की महिमा गाते हैं ना — ऊंचा उनका नाम, ऊंचा उनका धाम, ऊंचा काम। तो जो हाइएस्ट है वह भी सदैव अपने ऊंच नाम, ऊंचे धाम और ऊंचे काम में तत्पर हों। कोई भी निचाई का कार्य कर ही नहीं सकते हैं। जैसे महान् आत्मा जो बनते हैं वह कभी भी किसी के आगे झुकते नहीं हैं। उनके आगे सभी झुकते हैं तब उसको महान आत्मा कहा जाता है। जो आजकल के ऐसे ऐसे महान् आत्माओं से भी महान्, श्रेष्ठ आत्मायें, जो बाप की चुनी हुई आत्मायें हैं, विश्व के राज्य के अधिकारी हैं, बाप के वर्से के अधिकारी हैं, विश्व-कल्याणकारी हैं – ऐसी आत्मायें कहां भी, कोई भी परिस्थिति में वा माया के भिन्न-भिन्न आकर्षण करने वाले रूपों में क्या अपने आप को झुका सकते हैं? आजकल के कहलाने वाले महात्माओं ने तो आप महान् आत्माओं की कॉपी की है। तो ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें कहां भी, किसी रीति झुक नहीं सकतीं। वे झुकाने वाले हैं, न कि झुकने वाले। कैसा भी माया का फोर्स हो लेकिन झुक नहीं सकते। ऐसे माया को सदा झुकाने वाले बने हो कि कहां-कहां झुक करके भी देखते हो? जब अभी से ही सदा झुकाने की स्थिति में स्थित रहेंगे, ऐसे श्रेष्ठ संस्कार अपने में भरेंगे तब तो ऐसे हाइएस्ट पद को प्राप्त करेंगे जो सतयुग में प्रजा स्वमान से झुकेगी और द्वापर में भिखारी हो झुकेंगे। आप लोगों के यादगारों के आगे भक्त भी झुकते रहते हैं ना। अगर यहां अभी माया के आगे झुकने के संस्कार समाप्त न किये, थोड़े भी झुकने के संस्कार रह गये तो फिर झुकने वाले झुकते रहेंगे और झुकाने वालों के आगे सदैव झुकते रहेंगे। लक्ष्य क्या रखा है, झुकने का वा झुकाने का? जो अपनी ही रची हुई परिस्थिति के आगे झुक जाते हैं — उनको हाइएस्ट कहेंगे? जब तक हाइएस्ट नहीं बने हो तब तक होलीएस्ट भी नहीं बन सकते हो। जैसे आपके भविष्य यादगारों का गायन है सम्पूर्ण निर्विकारी। तो इसको ही होलीएस्ट कहा जाता है। सम्पूर्ण निर्विकारी अर्थात् किसी भी परसेन्टेज में कोई भी विकार तरफ आकर्षण न जाए वा उनके वशीभूत न हो। अगर स्वप्न में भी किसी भी प्रकार विकार के वश किसी भी परसेन्टेज में होते हो तो सम्पूर्ण निर्विकारी कहेंगे? अगर स्वप्नदोष भी है वा संकल्प में भी विकार के वशीभूत हैं तो कहेंगे विकारों से परे नहीं हुए हैं। ऐसे सम्पूर्ण पवित्र वा निर्विकारी अपने को बना रहे हो वा बन गये हो? जिस समय लास्ट बिगुल बजेगा उस समय्य बनेंगे? अगर कोई बहुत सय्मयय् से ऐसी स्थिति में स्थित नहीं रहता है तो ऐसी आत्माओं का फिर गायन भी अल्पकाल का ही होता है। ऐसे नहीं समझना कि लास्ट में फास्ट जाकर इसी स्थिति को पा लेंगे। लेकिन नहीं। बहुत समय जो गायन है — उसको भी स्मृति में रखते हुए अपनी स्थिति को होलीएस्ट और हाइएस्ट बनाओ। कोई भी संकल्प वा कर्म करते हो तो पहले चेक करो कि जैसा ऊंचा नाम है वैसा ऊंचा काम है? अगर नाम ऊंचा और काम नीचा तो क्या होगा? अपने नाम को बदनाम करते हो? तो ऐसे कोई भी काम नहीं हो – यह लक्ष्य रखकर ऐसे लक्षण अपने में धारण करो। जैसे दूसरे लोगों को समझाते हो कि अगर ज्ञान के विरूद्ध कोई भी चीज़ स्वीकार करते हो तो ज्ञानी नहीं अज्ञानी कहलाये जायेंगे। अगर एक बार भी कोई नियम को पूरी रीति से पालन नहीं करते हैं तो कहते हो ज्ञान के विरूद्ध किया। तो अपने आप से भी ऐसे ही पूछो कि अगर कोई भी साधारण संकल्प करते हैं तो क्या हाइएस्ट कहा जायेगा? तो संकल्प भी साधारण न हो। जब संकल्प श्रेष्ठ हो जायेंगे तो बोल और कर्म आटोमेटिकली श्रेष्ठ हो जायेंगे। ऐसे अपने को होलीएस्ट और हाइएस्ट, सम्पूर्ण निर्विकारी बनाओ। विकार का नाम-निशान न हो। जब नाम- निशान ही नहीं तो फिर काम कैसे होगा? जैसे भविष्य में विकार का नाम- निशान नहीं होता है ऐसे ही हाइएस्ट और होलीएस्ट अभी से बनाओ तब अनेक जन्म चलते रहेंगे। अच्छा। ऐसे ऊंचा नाम और ऊंचे काम करने वालों को नमस्ते।

अपने फीचर से फ्यूचर दिखाओ – प्रश्न और उत्तर

प्रश्न 1: सदा स्नेही आत्मा किसे कहा जाता है?
उत्तर: जो हर स्थिति में, हर रूप में, और हर रीति से बाप समान स्नेही और सहयोगी बना रहता है, जिसका एक संकल्प भी बाप से अलग नहीं जाता, वही सदा स्नेही आत्मा कहलाती है।

प्रश्न 2: बाप समान बनने का प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है?
उत्तर: जब हमारे फीचर्स (स्वभाव, व्यवहार, दृष्टि) से बाप के गुण प्रकट होते हैं और दूसरों को हमारे माध्यम से दिव्यता का अनुभव होता है, तो यह बाप समान बनने का प्रमाण है।

प्रश्न 3: स्नेह को छिपाया जा सकता है या नहीं?
उत्तर: नहीं, स्नेह किसी-न-किसी रूप में, किसी-न-किसी कर्त्तव्य या स्वरूप से प्रकट हो ही जाता है।

प्रश्न 4: अपने अंदर बाप की स्नेही और सहयोगी सीरत को कैसे परख सकते हैं?
उत्तर: रोज अमृतवेले अपने आंतरिक स्वरूप को सूक्ष्म दर्पण में देखकर यह जांच करनी चाहिए कि क्या मेरी सूरत से बाप की दिव्यता झलकती है?

प्रश्न 5: आत्मा के बिंदू स्वरूप में स्थित रहने से क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर: जब हम बिंदू स्वरूप में स्थित रहते हैं, तो हमारी दिव्यता और पवित्रता इतनी स्पष्ट होती है कि सामने आने वाली आत्मा का ध्यान हमारे अविनाशी तिलक की ओर जाता है।

प्रश्न 6: सच्चे स्नेह का प्रमाण क्या होता है?
उत्तर: सच्चा स्नेह वही होता है जिसमें सभी आकर्षणों को किनारे कर केवल बाप को ही सर्वस्व अर्पण किया जाता है और तन, मन, धन का सच्चा दान किया जाता है।

प्रश्न 7: सच्चा योगी कौन होता है?
उत्तर: सच्चा योगी वही होता है जो हर परिस्थिति में बाप से अटूट संबंध बनाए रखता है और व्यर्थ कर्म में एक भी संकल्प या समय नष्ट नहीं करता।

प्रश्न 8: जो बाप का सबकुछ अर्पण कर चुका है, क्या उसका कुछ भी अपना होता है?
उत्तर: नहीं, जिसने तन, मन, धन सब बाप को समर्पित कर दिया, उसके लिए “मेरा” कुछ भी नहीं होता। यदि कोई चीज़ अपनी मानकर उपयोग करता है, तो वह ठगी कहलाती है।

प्रश्न 9: श्रेष्ठ आत्माएँ झुकने वाली होती हैं या झुकाने वाली?
उत्तर: श्रेष्ठ आत्माएँ कभी झुकती नहीं, वे झुकाने वाली होती हैं। वे किसी भी परिस्थिति, माया या आकर्षण के आगे नहीं झुकतीं।

प्रश्न 10: हाइएस्ट और होलीएस्ट आत्मा की पहचान क्या है?
उत्तर: हाइएस्ट आत्मा वही है जिसका हर संकल्प, हर बोल, और हर कर्म बाप समान ऊँचाई का हो। होलीएस्ट वही है जो सम्पूर्ण निर्विकारी स्थिति में स्थित रहे, जहाँ विकारों का नाम-निशान भी न हो।

प्रश्न 11: यदि कोई आत्मा अपने लक्ष्य के अनुरूप लक्षण नहीं दिखाती, तो इसका क्या अर्थ है?
उत्तर: इसका अर्थ है कि अभी वह पूर्णता से दूर है। आत्मा के लक्षणों से ही उसके लक्ष्य का पता चलता है, इसलिए निरंतर आत्म-परीक्षण आवश्यक है।

प्रश्न 12: “अपने फीचर्स से फ्यूचर दिखाने” का क्या अर्थ है?
उत्तर: इसका अर्थ है कि हमारी दिव्यता, पवित्रता और श्रेष्ठता इतनी स्पष्ट हो कि लोग हमारे फीचर्स देखकर ही हमारे महान भविष्य (सतोप्रधान स्थिति) का अनुभव कर सकें।

प्रश्न 13: अगर कोई अभी से होलीएस्ट और हाइएस्ट नहीं बना, तो क्या होगा?
उत्तर: यदि कोई अभी से इस स्थिति में नहीं आता, तो अंतिम समय पर संकल्प करके भी वह उच्चतम पद प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि इसे समय रहते धारण करना पड़ता है।

प्रश्न 14: महान आत्मा किसे कहा जाता है?
उत्तर: महान आत्मा वही होती है जो कभी भी किसी के आगे झुकती नहीं, बल्कि उसके आगे सभी झुकते हैं।

प्रश्न 15: क्या साधारण संकल्प रखना हाइएस्ट स्थिति में आने की निशानी है?
उत्तर: नहीं, जब तक संकल्प श्रेष्ठ नहीं होंगे, तब तक बोल और कर्म भी श्रेष्ठ नहीं होंगे। इसलिए संकल्प भी साधारण नहीं, बल्कि ऊँचे और शक्तिशाली होने चाहिए।

प्रश्न 16: सम्पूर्ण निर्विकारी बनने का अर्थ क्या है?
उत्तर: इसका अर्थ है कि विकार का नाम-निशान भी न रहे, न जाग्रत अवस्था में, न स्वप्न में, न संकल्पों में।

प्रश्न 17: अपने ऊँचे नाम को बनाए रखने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर: हर संकल्प और कर्म को पहले जांचना चाहिए कि यह बाप समान हाइएस्ट स्थिति के अनुरूप है या नहीं।

प्रश्न 18: यदि कोई आत्मा ज्ञान के विरुद्ध आचरण करती है, तो उसे क्या कहा जाएगा?
उत्तर: उसे ज्ञानी नहीं, बल्कि अज्ञानी कहा जाएगा, क्योंकि ज्ञान को जानकर भी यदि कोई नियमों का पालन नहीं करता, तो वह ज्ञानी नहीं रह सकता।

प्रश्न 19: सच्चे स्नेही और सहयोगी आत्मा का लक्ष्य क्या होता है?
उत्तर: उनका लक्ष्य होता है अपने जीवन के हर पल को बाप समान बनाना, ताकि उनके फीचर्स से ही दूसरों को भविष्य का अनुभव हो।

प्रश्न 20: अंतिम समय में फास्ट बनने की आशा रखना कितना सही है?
उत्तर: यह आशा रखना गलत है, क्योंकि जो आत्मा लंबे समय तक हाइएस्ट और होलीएस्ट स्थिति में रहती है, वही इस अवस्था का स्थायी अनुभव कर सकती है।

प्रश्न 21: किस अवस्था में एक भी व्यर्थ संकल्प नहीं आता?
उत्तर: जब आत्मा सम्पूर्ण निर्विकारी और बाप समान बन जाती है, तब एक भी व्यर्थ संकल्प नहीं आता।

प्रश्न 22: सच्चे योगी और सहयोगी बनने के लिए क्या संकल्प रखना चाहिए?
उत्तर: यह संकल्प कि “मेरा हर संकल्प, बोल, और कर्म बाप समान ऊँचाई का होगा और मैं अपने फीचर्स से ही फ्यूचर दिखाने वाली आत्मा बनूँगा।”

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