Avyakta Murli”12-11-1972

Short Questions & Answers Are given below (लघु प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

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अलौकिक कर्म करने की कला

अव्यक्तमूर्त अर्थात् इस शरीर में पार्ट बजाने वाले अति न्यारे और अति प्यारे की स्थिति में स्थित रहने के अनुभवीमूर्त बन गये हो? हर समय मालिक और बालक, दोनों ही साथ-साथ पार्ट बजाने में यत्न करने वाले नहीं, लेकिन सहज स्वरूप बन गये हो? वा मालिक बनते हो तो बालकपन भूल जाता है वा बालक बनते हो तो मालिकपन भूल जाता है? अभी-अभी मालिक, अभी-अभी बालक। अभी-अभी कर्मयोगी, अभी-अभी देह से भी परे, कर्म से भी परे, लग्न में मग्न रहने वाले योगी बन सकते हो? संकल्प और कर्म – दोनों ही समान बने हैं वा संकल्प और कर्म में अन्तर है? संकल्प किया और प्रैक्टिकल रूप में आया, ऐसी प्रैक्टिस हुई है? याद की यात्रा पर चलने वाले राही इतने समीप आये हो? सहज भी और समीप भी हैं, यह दोनों ही अनुभव होते हैं? इस याद की यात्रा के अनेक अनुभव करते- करते अब नॉलेजफुल और पावरफुल बने हो? जैसे यात्रा में बीच-बीच में चट्टियां आती हैं, जिससे मालूम पड़ता है कि कहां तक पहुंचे हैं और कहां तक अब पहुंचना है। आप याद की यात्रा के राही इस यात्रा की कितनी चट्टियां पार कर चुके हो अर्थात् याद की कितनी स्टेजेस को पार कर चुके हो? लास्ट स्टेज वा फाइनल स्टेज कौनसी है? उसको ऐसे ही स्पष्ट देख और जान रहे हो जैसे कोई वस्तु बहुत समीप और सम्मुख आ जाती हैं। तो उसको सहज जान, देख रहे हो कि अभी देखने से दूर है? देखते रहते हो वा सिर्फ जाना है? वा इतना सम्मुख वा समीप आ गये हो जो कई बार उस मंजिल पर पहुंच, थोड़े समय का अनुभव भी करते रहते हो? अनुभव होता है? फिर उसी अनुभव में रहते क्यों नहीं हो? स्थिति का अनुभव होता है, बाकी स्थित रहना नहीं आता, ऐसे? सदा स्थित क्यों नहीं हो पाते हो, कारण? सर्विस वा जो ब्राह्मणों के कर्म हैं, जिस कर्म को अलौकिक कर्म कहा जाता है, ऐसे अलौकिक कर्म वा ईश्वरीय सेवा कब भी स्थिति से नीचे लाने के निमित्त नहीं बन सकते। अगर कोई को ऐसे अनुभव होता है कि अलौकिक कर्म के कारण नीचे आते हैं तो उसका अर्थ है कि उस आत्मा को अलौकिक कर्म करने की कला नहीं आती है। जैसे कला दिखाने वाले कलाबाज वा सर्कस में काम करने वाले हर कर्म करते हुए, हर कर्म में अपनी कलाबाजी दिखाते हैं। उन्हों का हर कर्म कला बन जाता है। तो क्या आप श्रेष्ठ आत्माएं, कर्मयोगी, निरंतर योगी, सहयोगी, राजयोगी हर कर्म को न्यारे और प्यारे रहने की कला में नहीं कर सकते? जैसे उन्हों के शरीर की कला देखने के लिये कितने लोग इच्छुक होते हैं! आपकी बुद्धि की कला, अलौकिक कर्म की कला देखने के लिए सारे विश्व की आत्माएं इच्छुक बन कर आवेंगी। तो क्या अब यह कला नहीं दिखावेंगे? जैसे वह लोग शरीर के कोई भी अंग को जैसे चाहें, जहां चाहें, जितना समय चाहें कर सकते हैं, यही तो कला है। आप सभी भी बुद्धि को जब चाहो, जितना समय चाहो, जहां स्थित करना चाहो वहां स्थित नहीं कर सकते हो? वह है शरीर की बाजी, यह है बुद्धि की। जिसको यह कला आ जाती है वही 16 कला सम्पन्न बनते हैं। इस कला से ही अन्य सर्व कलाएं स्वत: ही आ जाती हैं। ऐसे एक देही-अभिमानी स्थिति सर्व विकारों को सहज ही शान्त कर देती है। ऐसे यही बुद्धि की कला सर्व कलाओं को अपने में भरपूर कर सकती है वा सर्व कला सम्पन्न बना सकती है। तो इस कला में कहां तक अभ्यासी वा अनुभवी बने हो? अभी-अभी सभी को डायरेक्शन मिले कि एक सेकेण्ड में अशरीरी बन जाओ; तो बन सकते हो? सिर्फ एक सेकेण्ड में स्थित हो सकते हो? जब बहुत कर्म में व्यस्त हों ऐसे समय भी डायरेक्शन मिले। जैसे जब युद्ध प्रारम्भ होता है तो अचानक आर्डर निकलते हैं — अभी-अभी सभी घर छोड़ बाहर चले जाओ। फिर क्या करना पड़ता है? ज़रूर करना पड़े। तो बापदादा भी अचानक डायरेक्शन दें कि इस शरीर रूपी घर को छोड़, इस देह-अभिमानी की स्थिति को छोड़ देही-अभिमानी बन जाओ, इस दुनिया से परे अपने स्वीटहोम में चले जाओ; तो कर सकेंगे? युद्धस्थल में रूक तो नहीं जावेंगे? युद्ध करते-करते ही समय तो नहीं बिता देंगे कि – ‘‘जावें न जावें? जाना ठीक होगा वा नहीं? यह ले जावें वा छोड़ जावें?’’ इस सोच में समय गंवा देते हैं। ऐसे ही अशरीरी बनने में अगर युद्ध करने में ही समय लग गया तो अंतिम पेपर में मार्क्स वा डिवीजन कौन-सा आवेगा? अगर युद्ध करते- करते रह गये तो क्या फर्स्ट डिवीजन में आवेंगे? ऐसे उपराम, एवररेडी बने हो? सर्विस करते और ही स्थिति शक्तिशाली हो जाती है। क्योंकि आपकी श्रेष्ठ स्थिति ही इस समय की परिस्थितियों को परिवर्तन में लावेगी। तो सर्विस करने का लक्ष्य क्या है? किसलिये सर्विस करते हो? परिस्थितियों को परिवर्तन करने लिये ही तो सर्विस करते हो ना। सर्विस में स्थिति साधारण रहे तो वह सर्विस हुई? इस याद की यात्रा की मुख्य 4 सब्जेक्ट्स हैं जिसे चेक करो कि कहां तक पहुंचे हैं? पहले स्थिति थी वो अब भी कोई-कोई की है, वह क्या? वियोगी। दूसरी स्टेज – वियोगी के बाद योगी बनते हैं। तीसरी स्टेज – योगी के बाद सहयोगी बनते हैं। सहयोगी बनने के बाद लास्ट स्टेज है सर्वत्यागी बनते हैं? इन चार सब्जेक्ट्स को सामने रखते हुये देखो कि कितनी पौड़ियां पार की हैं, कितने तक ऊपर चढ़े हो? क्या अभी तक भी बार-बार कब वियोगी तो नहीं बनते हो? सदा योगी वा सहयोगी बनकर के चलते हो? अगर कोई भी विघ्न आता है, विघ्न के वश होना अर्थात् वियोगी होना, तो वियोगी तो नहीं बनते हो? विघ्न योगयुक्त अवस्था को समाप्त कर सकता है? बाप की स्मृति को विस्मृति में ला देता है। विस्मृति अर्थात् वियोगी। तो योगीपन की स्टेज ऐसे ही निरंतर रहे जैसे शरीर और आत्मा का जब तक पार्ट है तब तक अलग नहीं हो पाती है, वैसे बाप की याद बुद्धि से अलग न हो। बुद्धि का साथ सदैव याद अर्थात् बाप के साथ हो। ऐसे को कहा जाता है योगी जिसको और कोई भी स्मृति अपनी तरफ आकर्षित न कर पावे। जैसे बहुत ऊंची वा श्रेष्ठ पावर के आगे कम पावर वाले कुछ भी नहीं कर पाते हैं, ऐसे अगर सर्वशक्तिवान् की याद सदा साथ है तो और कोई भी याद बुद्धि में अंदर आ नहीं सकती। इसको ही सहज और स्वत: योगी कहा जाता है। वह लोग कहते हैं और यहां हैं स्वत: योगी। तो ऐसे योगी बने हो? ऐसा योगी सदा हर सेकेण्ड, हर संकल्प, हर वचन, हर कर्म में सहयोगी अवश्य होगा। अगर संकल्प में सहयोगी नहीं सिर्फ कर्म में है, वा कर्म में सहयोगी हैं, किसी बात में नहीं है तो ऐसे को सहयोगी की स्टेज तक पहुंची हुई आत्माएं नहीं कहेंगे। एक संकल्प भी सहयोग के बिना चलता है-इसको व्यर्थ कहेंगे।

जो व्यर्थ गंवाने वाले होते हैं वह कब किसके सहयोगी नहीं बन सकते, स्वयं में शक्तिशाली नहीं बन सकते। ऐसे सर्व स्नेही, सहयोगी, सर्वांश त्यागी वा सर्वत्यागी सहज ही बन जाते हैं। जबकि भक्ति में भी सिर्फ कोई ईश्वर के अर्थ दान करते हैं तो उन्हों को भी विनाशी राजपद की प्राप्ति होती है। तो सोचो जो हर संकल्प और सेकेण्ड ईश्वरीय सेवा के सहयोग में लगाते हैं, उसकी कितनी श्रेष्ठ प्राप्ति होगी! ऐसे महादानी सर्वत्यागी सहज ही बन जाते हैं। ऐसे सर्वत्यागी वर्तमान और भविष्य में सर्वश्रेष्ठ भाग्यशाली बनते हैं। न सिर्फ भविष्य लेकिन वर्तमान समय भी ऐसे श्रेष्ठ भाग्यशाली आत्मा के भाग्य को देखते हुये, अनुभव करते हुए अन्य आत्माएं उनके भाग्य के गुण गाते हैं और अनेक आत्माओं को अपने श्रेष्ठ भाग्य के आधार से भाग्यशाली बनाने के निमित्त बनते हैं। तो देखो इन 4 सब्जेक्ट्स से किस स्टेज तक पहुंचे हो वा मंजिल के कितना समीप आये हो।

अलौकिक कर्म करने की कला – प्रश्नोत्तर

1. अव्यक्तमूर्त बनने का क्या अर्थ है?
अव्यक्तमूर्त बनने का अर्थ है शरीर में रहते हुए भी आत्मिक स्थिति में स्थित रहना और हर कर्म अलौकिक रूप में करना।

2. मालिक और बालक की स्थिति को साथ-साथ कैसे धारण किया जा सकता है?
स्मृति में रखना कि हम परमात्मा के बच्चे भी हैं और उनकी सेवा के मालिक भी, यह अनुभव दोनों स्थितियों को सहज बना देता है।

3. क्या संकल्प और कर्म समान रूप से चलते हैं?
हाँ, जब संकल्प और कर्म में कोई अंतर नहीं रहता, तो आत्मा सहज कर्मयोगी बन जाती है।

4. याद की यात्रा में कितनी स्टेजेस होती हैं?
याद की यात्रा में चार मुख्य स्टेजेस हैं – वियोगी, योगी, सहयोगी, और सर्वत्यागी।

5. अलौकिक कर्म करने की कला क्या है?
हर कर्म को आत्मिक स्थिति में रहकर करना, जिससे कर्म में कोई देह-अभिमान न हो और सेवा सहज रूप में हो।

6. बुद्धि की कला क्या है?
बुद्धि को जब चाहो, जितना चाहो, जहाँ चाहो स्थित करने की क्षमता विकसित करना।

7. 16 कला सम्पन्न बनने के लिए कौन-सी मुख्य कला आवश्यक है?
बुद्धि को एक सेकेण्ड में अशरीरी स्थिति में ले जाने की कला ही 16 कला सम्पन्नता की नींव है।

8. युद्ध के समय अचानक निर्देश मिलने पर क्या करना पड़ता है?
तुरंत आदेश का पालन करना पड़ता है, वैसे ही परमात्मा के निर्देश पर तुरंत अशरीरी स्थिति में स्थित होना चाहिए।

9. सर्विस का मुख्य लक्ष्य क्या होना चाहिए?
सर्विस का मुख्य लक्ष्य परिस्थितियों को बदलना और आत्माओं को आत्मिक स्थिति में स्थित करना है।

10. सहयोगी बनने का सही अर्थ क्या है?
हर संकल्प, हर वचन, और हर कर्म में सहयोगी बनना, न कि सिर्फ कर्म में सहयोग देना।

11. सहज योगी कौन कहलाते हैं?
जो हर संकल्प और हर स्थिति में स्वतः ही परमात्मा की स्मृति में स्थित रहते हैं।

12. व्यर्थ संकल्प किसे कहा जाता है?
जो संकल्प ईश्वरीय सेवा में नहीं लगता, वह व्यर्थ कहलाता है।

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