Short Questions & Answers Are given below (लघु प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
त्याग और भाग्य
अपने को त्याग-तपस्वीमूर्त समझते हो? सबसे बड़े ते बड़ा मेहनत का त्याग कौन-सा है? (देह-अभिमान) ज्ञान का अभिमान वा बुद्धि का अभिमान भी क्यों आता है? पुराने संस्कारों का त्याग भी क्यों नहीं होता है? उसका मुख्य कारण देह-अभिमान है। देह-अभिमान को छोड़ना बड़े ते बड़ा त्याग है, जो हर सेकेण्ड अपने आपको चेक करना पड़ता है। और जो स्थूल त्याग है वह कोई एक बार त्याग करने के बाद किनारा कर लेते हैं। लेकिन यह जो देह-अभिमान का त्याग है वह हर सेकेण्ड देह का आधार लेते रहना है लेकिन यहॉं सिर्फ रहते हुए न्यारा बनना है। इसी कारण हर सेकेण्ड देह के साथ आत्मा का गहरा सम्बन्ध होने कारण देह का अभिमान भी बहुत गहरा हो गया है। अब इसको मिटाने के लिए मेहनत लगती है। अपने आप से पूछो कि सब प्रकार का त्याग किया है? क्योंकि जितना त्याग करेंगे उतना ही भाग्य प्राप्त करेंगे – वर्तमान समय में वा भविष्य में भी। ऐसे नहीं समझना कि संगमयुग में सिर्फ त्याग करना है और भविष्य में भाग्य लेना है। ऐसे नहीं है। जो जितना त्याग करता है और जिस घड़ी त्याग करता है, उसी घड़ी जितना त्याग उनके रिटर्न में उनको भाग्य ज़रूर प्राप्त होता है। संगमयुग में त्याग वा प्रत्यक्षरूप में भाग्य क्या मिलता है, यह जानते हो? अभी-अभी भाग्य क्या मिलता है? सतयुग में तो मिलेगा जीवन-मुक्ति पद, अब क्या मिलता है? आपको अपने त्याग का भाग्य मिलता है? संगमयुग में त्याग का भाग्य बड़े ते बड़ा यही मिलता है कि स्वयं भाग्य बनाने वाला अपना बन जाता है। यह सबसे बड़ा भाग्य हुआ ना! यह सिर्फ संगमयुग पर ही प्राप्त होता है जो स्वयं भगवान अपना बन जाता है। अगर त्याग नहीं तो बाप भी अपना नहीं। देह का भान है तो क्या बाप याद है? बाप के समीप सम्बन्ध का अनुभव होता है जब देहभान का त्याग करते हो तो। देहभान का त्याग करने से ही देही-अभिमानी बनने से पहली प्राप्ति क्या होती है? यही ना कि निरन्तर बाप की स्मृति में रहते हो अर्थात् हर सेकेण्ड के त्याग से हर सेकेण्ड के लिए बाप के सर्व सम्बन्ध का, सर्व शक्तियों का अपने साथ अनुभव करते हो। तो यह सबसे बड़ा भाग्य नहीं? यह भविष्य में नहीं मिलेगा। इसलिए कहा जाता है – यह सहज ज्ञान और सहज राजयोग भविष्य फल नहीं लेकिन प्रत्यक्षफल देने वाला है। भविष्य तो वर्तमान के साथ-साथ बांधा हुआ ही है लेकिन सर्वश्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प के अन्दर और कहां नहीं प्राप्त करते हो। इस समय ही त्याग और तपस्या से बाप का हर सेकेण्ड का अनुभव करते हो अर्थात् बाप को सर्व सम्बन्धों से अपना बना लेते हो। पुकार यह नहीं करते थे। पुकारते तो कुछ और थे लेकिन प्राप्ति क्या हो गई? जो न संकल्प, न स्वप्न में था वह प्राप्ति हो रही है ना। तो जो न संकल्प, न स्वप्न में बात हो वह प्राप्त हो जाए – इसको कहा जाता है भाग्य। जो चीज़ मेहनत से प्राप्त होती है उसको भाग्य नहीं कहा जाता है। स्वत: ही मिलने का असम्भव से सम्भव हो जाता है, न उम्मीदवार से उम्मीदवार हो जाते हैं, इसलिए इसको कहा जाता है भाग्य। यह भाग्य नहीं मिला? पुकारते तो कुछ और थे — कि हमको सिर्फ अपना कुछ- न-कुछ बना लो। इतना ऊंच बनना नहीं चाहते थे लेकिन मिला क्या? स्वयं तो बन गये लेकिन बाप को भी सब-कुछ बना लिया। तो यह भाग्य नहीं? संगमयुग का श्रेष्ठ भाग्य इसी त्याग से मिलता है। सदैव यह सोचो कि अगर देहभान का त्याग नहीं करेंगे अर्थात् देही अभिमानी नहीं बनेंगे तो भाग्य भी अपना नहीं बना सकेंगे अर्थात् संगमयुग का जो श्रेष्ठ भाग्य है उनसे वंचित रहेंगे। अगर मानो सारे दिन में कुछ समय देह-अभिमान का त्याग रहता है और कुछ समय नीचे रहते हैं अर्थात् देह के भान का त्याग नहीं, तो उतना ही संगमयुग में श्रेष्ठ भाग्य से वंचित होते हैं। भाग्य बनाने वाला बाप जब हर सेकेण्ड भाग्य बनाने की विधि सुना रहे हैं तो क्या करना चाहिए? उसी विधि से सर्व सिद्धियों को प्राप्त करना चाहिए। विधि को न अपनाने कारण क्या रिजल्ट होती है? न अवस्था की वृद्धि होती है और न सर्व प्राप्तियों की सिद्धि होती है। तो क्या करना चाहिए? विधाता द्वारा मिली हुई विधियों को सदा अपनाना चाहिए जिससे वृद्धि भी होगी और सिद्धि भी होगी। तो चेक करो-संकल्प के रूप में व्यर्थ संकल्प का कहां तक त्याग किया है? वृत्ति सदा भाई-भाई की रहनी चाहिए; उस वृति को कहां तक अपनाया है और देह में देहधारीपन की वृति का कहां तक त्याग किया है? समझते हो मैसूर वाले? आज तो खास इन्हों से मिलने आये हैं ना क्योंकि इतने दूर से, मेहनत से, स्नेह से आये हैं, तो बाप को भी दूरदेश से आना ही पड़ा है। तो खुशी होती है ना। आज खास दूरदेश से आने वालों के लिए दूरदेश से बाप भी आये हैं। तो जिससे स्नेह होता है, तो स्नेही के स्नेह में त्याग कोई बड़ी बात नहीं होती है। विकारों के स्नेह में आकर अपनी सुध-बुद्ध का भी त्याग तो अपने शरीर का भी त्याग किया। बच्चों के स्नेह में माँ तन का भी त्याग करती है ना। जब देहधारी के सम्बन्ध के स्नेह में अपना ताज, तख्त और अपना असली स्वरूप सब छोड़ दिया ना, तो जब अभी बाप के स्नेही बने हो तो क्या यह देह-अभिमान का त्याग नहीं कर सकते हो? मुश्किल है? सोचना चाहिए कि अल्पकाल के सम्बन्ध में इतनी शक्ति थी जो ऊपर से नीचे ला दिया। ऊपर से नीचे इसीलिए आये हो ना। और अब बाप जब कहते हैं और बाप से सर्व सम्बन्ध जोड़े हैं, तो क्या बाप के स्नेह में यह उलटा देह-अभिमान का त्याग कोई बड़ी बात है? छोटी बात है ना! फिर भी क्यों नहीं कर पाते हो? यह तो एक सेकेण्ड में कर देना चाहिए। बच्चा अगर एक मास बीमार होता है तो मां का जो अल्पकाल का सम्बन्ध है, देह का सम्बन्ध है, फिर भी मां एक मास के लिए सब-कुछ त्याग कर देती है। देह की स्मृति, सुख त्याग करने में देरी नहीं करती। मुश्किल भी नहीं समझती है। तो यहां क्या करना चाहिए? यहां तो सदाकाल का सम्बन्ध और सर्व सम्बन्ध है, सर्व प्राप्ति का सम्बन्ध हैं, तो यहॉं एक सेकेण्ड भी त्याग करने में देरी नहीं करनी चाहिए। लेकिन कितने वर्ष लगाया है? देह का भान त्याग करने में कितना वर्ष लगाया है? कितने वर्ष हो गये? (36) लगना चाहिए एक सेकेण्ड और लगाया है 36 वर्ष (आधा कल्प का अभ्यास पड़ा हुआ है) और वह जो आधाकल्प देहभान से और विकारों से न्यारे थे वह आधा कल्प का अभ्यास एक सेकेण्ड में भूल गया? इसमें टाइम लगा क्या? (त्रेता में भी दो कला कम हो जाती हैं) फिर भी विकारों से परे तो रहते हो ना। सतयुग, त्रेता में निर्विकारी तो थे ना। दो कला कम होने के बाद भी त्रेता में निर्विकारी तो कहेंगे ना। विकारों के आकर्षण से परे थे ना। यह भी आधा कल्प के संस्कार हो गये, तो वह क्यों नहीं स्मृति में जल्दी आते हैं? आत्मा का असली रूप भी क्या है? आप आत्मा के निजी असली संस्कार वा गुण कौनसे हैं? वही हैं ना जो बाप में हैं। जो बाप के गुण हैं – ज्ञान का सागर, सुख का सागर, शान्ति का सागर; वह सागर है पर आप स्वरूप तो हो। तो जो आत्मा के निजी गुण हैं, शान्ति-स्वरूप तो हो ना। यह तो संग के रंग में परिवर्तन में आये हो, लेकिन वास्तविक जो आत्मा के स्वरूप का गुण है वह तो बाप के समान हैं ना। वह भी क्यों नहीं जल्दी स्मृति में आना चाहिए? ऐसे-ऐसे अपने से बातें करो। समझा? ऐसे-ऐसे अपने से बातें करते- करते अर्थात् रूह-रूहान करते-करते रूहानियत में स्थित हो जायेंगे। यह अभी नहीं सोचो कि द्वापर के यह पुराने संस्कार हैं, इसलिए यह हो गया। यह नहीं सोचो। इसके बजाय यह सोचो कि मुझ आत्मा के आदि संस्कार और अनादि संस्कार कौनसे हैं! सृष्टि के आदि में जब आत्माएं आईं तो क्या संस्कार थे? दैवी संस्कार थे ना। तो यह सोचो – आदि में आत्मा के संस्कार और गुण कौन-से थे! मध्य को नहीं सोचो। अनादि और आदि संस्कारों को सोचो तो क्या होगा कि मध्य के संस्कार बीच-बीच में जो प्रज्वलित होते हैं वह मध्यम हो जायेंगे। मध्यम ढीले को कहा जाता है। कहते हैं ना – इसकी चाल मध्यम है। तो मध्य के संस्कार मध्यम हो जायेंगे और जो अनादि और आदि संस्कार हैं वह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देंगे। समझा? सदैव अनादि और आदि को ही सोचो।
त्याग और भाग्य
प्रश्न 1: सबसे बड़ा त्याग कौन-सा है?
उत्तर: सबसे बड़ा त्याग देह-अभिमान का त्याग है।
प्रश्न 2: देह-अभिमान का त्याग क्यों आवश्यक है?
उत्तर: क्योंकि जब तक देह-अभिमान है, तब तक आत्मा बाप के समीपता का अनुभव नहीं कर सकती।
प्रश्न 3: त्याग का भाग्य क्या है?
उत्तर: त्याग का सबसे बड़ा भाग्य है कि स्वयं भाग्य बनाने वाला बाप अपना बन जाता है।
प्रश्न 4: संगमयुग में त्याग का प्रत्यक्ष फल क्या मिलता है?
उत्तर: संगमयुग में त्याग का प्रत्यक्ष फल बाप के सर्व संबंधों और सर्व शक्तियों की अनुभूति है।
प्रश्न 5: क्या त्याग केवल संगमयुग के लिए है?
उत्तर: नहीं, त्याग जितना किया जाता है, उसी समय उसका भाग्य भी प्राप्त होता है।
प्रश्न 6: क्या मेहनत से प्राप्त चीज़ को भाग्य कह सकते हैं?
उत्तर: नहीं, भाग्य वह होता है जो सहज और स्वतः प्राप्त हो।
प्रश्न 7: देह-अभिमान छोड़ने में देरी क्यों होती है?
उत्तर: क्योंकि आधा कल्प का अभ्यास गहरा है, इसलिए मेहनत करनी पड़ती है।
प्रश्न 8: देह-अभिमान को छोड़ने का सरल तरीका क्या है?
उत्तर: अनादि और आदि संस्कारों को स्मृति में रखना और बाप से सर्व संबंध जोड़ना।
प्रश्न 9: त्याग और तपस्या का सबसे बड़ा लाभ क्या है?
उत्तर: हर सेकंड बाप की स्मृति में रहने से आत्मा बाप के समान गुणों को धारण कर सकती है।
प्रश्न 10: यदि देह-अभिमान नहीं छोड़ते, तो क्या हानि होती है?
उत्तर: संगमयुग के श्रेष्ठ भाग्य से वंचित रह जाते हैं और बाप की समीपता का अनुभव नहीं कर पाते।
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