Ravana Rajya vs Ram Rajya (30) Is there no Kali Yuga tradition in Satyuga?

रावण राज्य बनाम रामराज्य (30) सतयुग में काेई कलियुगी परंपरा नहीं है?

( प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

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कलियुग में दुःख बनाम सतयुग में शाश्वत उत्सव

एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीवन की सच्चाई की खोज

(ब्रह्माकुमारीज़ के ईश्वरीय ज्ञान पर आधारित)


1. कलियुग: अनंत दुःख और विपत्ति की दुनिया

आज की यह दुनिया — यह पुरानी, जर्जर होती धरती — दुःख के महासागर में डूब चुकी है।

  • कहीं भारी बारिश से घर ढह जाते हैं।

  • बाढ़ में लोग बह जाते हैं।

  • चक्रवात, भूकंप और प्राकृतिक आपदाएँ अचानक तबाही मचाती हैं।

  • और अब तो बम धमाके जैसे मानव-निर्मित संकट भी आम हो गए हैं।

यह संसार अब न तो सुरक्षित है, न ही सुखमय। यह भय, पीड़ा और संघर्ष का युद्धक्षेत्र बन गया है।

यह कोई देवता-युग नहीं है — यह है कलियुग, पतन की चरम स्थिति।


2. कलियुग में दिवाली क्यों मनाई जाती है?

दुख और अधर्म की इस दुनिया में, लोग त्योहारों में थोड़ी सी खुशी खोजने की कोशिश करते हैं।
इन्हीं त्योहारों में सबसे प्रमुख है — दीपावली, जिसे “प्रकाश का पर्व” कहा जाता है।

लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि इसकी जड़ क्या है?

दीपावली मूलतः सतयुग के पहले राजा-रानी श्री लक्ष्मी-नारायण के राज्याभिषेक की स्मृति है।
वह क्षण सतयुग की शुरुआत का प्रतीक था — दिव्यता, समृद्धि और सच्चे प्रकाश का युग।

आज की दीपावली केवल उस सतयुगी दिव्य आरंभ की एक हल्की स्मृति मात्र है।


3. सतयुग में हर दिन एक उत्सव क्यों होता है?

सतयुग में, कोई त्योहार नहीं होता — क्योंकि पूरा जीवन ही एक उत्सव होता है।

  • वहाँ आनंद स्वाभाविक होता है।

  • आत्मा शांति, प्रेम और शक्ति से भरपूर होती है।

  • कोई दुःख नहीं होता, इसलिए विशेष उत्सव की कोई आवश्यकता ही नहीं होती।

हर दिन, हर पल, वहाँ दिव्य जीवन का आनंद लिया जाता है।


4. सतयुग में कोई कलियुगी परंपरा नहीं होती

आज के कलियुग में जो भी त्योहार, परंपराएं और सांस्कृतिक अनुष्ठान प्रचलित हैं —
जैसे दिवाली, होली, दशहरा — ये सब सतयुग में घटित मूल दिव्य घटनाओं की स्मृतियाँ हैं।

लेकिन सतयुग में:

  • कोई मंदिर नहीं होता, क्योंकि भगवान ही साथ रहते हैं।

  • कोई शास्त्र नहीं होते, क्योंकि सत्य को पढ़ा नहीं जाता, बल्कि जिया जाता है।

  • कोई कर्मकांड नहीं होता, क्योंकि जीवन ही पवित्रता की पराकाष्ठा होता है।

बाबा कहते हैं – “यह पुरानी दुनिया दुःख से भरी है। मैं जो नई दुनिया बना रहा हूँ, वह आनंद और उत्सव से भरी है।”


5. आओ, अपने भीतर सच्ची दिवाली मनाएँ

सच्ची दिवाली पटाखों, मिठाइयों या बाहरी रोशनी से नहीं होती।
वह होती है — आत्मा में ज्ञान और स्मृति की ज्योति जलने से।

  • जब आत्मा परमपिता शिव की स्मृति में स्थित होती है

  • जब अज्ञान का अंधकार मिटता है

  • और जब आत्मा स्वयं प्रकाशमयी बन जाती है

तभी सच्ची दिवाली मनती है — अंदर से।


6. निष्कर्ष: शाश्वत उत्सव के लिए तैयार हो जाएँ

प्रिय आत्माओं,

अब समय है — संगम युग का।
यह वह दिव्य समय है जब भगवान स्वयं आकर हमें दुःख की रात से उठाकर दिव्य आनंद के दिन की ओर ले जा रहे हैं।

तो आइए:

  • साल में सिर्फ एक दिन नहीं,

  • हर दिन को प्रकाश, प्रेम और आनंद से भर दें।

हम स्वयं वह दीपक बनें — जो आत्मचेतना से जगमगाता हो।

हम वह संसार बनाएं जहाँ:

  • हर आत्मा देवता के समान हो

  • हर दिन एक उत्सव हो

  • और पूरा जीवन एक गीत हो — “स्वर्ग अब यहाँ है।”


 यही सच्ची दिवाली है — और इसकी शुरुआत आपसे होती है।

(ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय ज्ञान पर आधारित)

प्रश्न 1: आज की दुनिया इतनी दुःख भरी क्यों हो गई है?

उत्तर:आज की दुनिया कलियुग है – लौह युग। यह आत्मा के पतन का अंतिम चरण है, जहाँ पाँच विकार – काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार – हावी हो चुके हैं।
प्राकृतिक आपदाएँ, बीमारियाँ, अपराध और डर इसका परिणाम हैं। यह वह दुनिया है जिसे ईश्वर “रावण राज्य” कहते हैं – जहाँ दुःख ही दुःख है।

प्रश्न 2: कलियुग में दिवाली जैसे त्योहार क्यों मनाए जाते हैं?

उत्तर:कलियुग में, जहाँ जीवन में वास्तविक आनंद नहीं है, वहाँ लोग त्योहारों के माध्यम से थोड़े पल की कृत्रिम खुशी खोजते हैं।
दिवाली भी एक ऐसा ही त्योहार है — जो असल में सतयुग की शुरुआत, श्री लक्ष्मी-नारायण के राज्याभिषेक की स्मृति है।
आज की दिवाली उस मूल दिव्यता की एक फीकी परछाई मात्र है।

प्रश्न 3: क्या दिवाली का कोई आध्यात्मिक महत्व है?

उत्तर:हाँ। दिवाली आत्मा के भीतर दिव्यता की लौ जलाने का प्रतीक है।
जब आत्मा परमपिता शिव को याद करती है, तो अज्ञान का अंधकार दूर होता है और दिव्य प्रकाश फैलता है।
वास्तविक दिवाली तब होती है जब आत्मा ईश्वर की स्मृति में स्थित हो जाती है।

प्रश्न 4: सतयुग में त्योहार क्यों नहीं होते?

उत्तर:सतयुग में जीवन स्वयं एक उत्सव है।
वहाँ कोई विशेष अवसर नहीं मनाना पड़ता क्योंकि हर आत्मा स्वाभाविक रूप से पवित्र, आनंदमय और संतुलित होती है।
हर दिन दिव्यता से भरा होता है — वहाँ कोई दुःख नहीं होता, इसलिए बाहरी उल्लास की आवश्यकता नहीं पड़ती।

प्रश्न 5: कलियुग के त्योहार सतयुग से कैसे जुड़े हैं?

उत्तर:दिवाली, होली, दशहरा जैसे पर्व सतयुग और त्रेतायुग के दिव्य घटनाओं की स्मृति हैं।
उदाहरण:

  • दिवाली = श्री लक्ष्मी-नारायण का राज्याभिषेक

  • होली = आत्माओं की पवित्रता में रंग भरना

  • दशहरा = विकार रूपी रावण का अंत

इन सबका आध्यात्मिक अर्थ है, लेकिन कलियुग में ये सिर्फ़ बाहरी उत्सव बनकर रह गए हैं।


प्रश्न 6: हमें दिवाली का सच्चा अर्थ कैसे अनुभव करना चाहिए?

उत्तर:हमें आत्मिक रूप से जागृत होकर दिव्यता की लौ जलानी चाहिए।

  • राजयोग के माध्यम से शिव बाबा से जुड़ें

  • विकारों का दहन करें

  • अपने जीवन को सच्चाई, पवित्रता और प्रेम से भरें
    यह है “सच्ची दिवाली” – आत्मा का परमात्मा से मिलन।


निष्कर्ष:

अब समय है — साल में एक दिवाली मनाने का नहीं,
बल्कि हर दिन को दिव्यता और शांति के उत्सव में बदलने का।
संगम युग ही वह समय है जहाँ हम खुद को सतयुग के उस शाश्वत उत्सव के योग्य बना सकते हैं।
अब दिवाली केवल एक दिन नहीं — यह एक नई जीवनशैली बन जाए।

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