(27)क्षेत्र और क्षेत्रज का सही परिचय आत्मा, शरीर और कर्म का रहस्य

“गीता का भगवान कौन?” — यह प्रश्न आज भी अनेक साधकों और जिज्ञासुओं के मन में गूंजता है। इस अध्याय में हम इस गूढ़ प्रश्न को श्रीमद्भगवद्गीता और ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय ज्ञान की दृष्टि से समझने का प्रयास करेंगे।
आज का प्रमुख विषय है: “क्षेत्र और क्षेत्रज का सही परिचय”, जो गीता के अध्याय 13 और अव्यक्त मुरली (सन् 1982) के ज्ञान पर आधारित है।
क्षेत्र और क्षेत्रज — आत्मा, शरीर और कर्म का रहस्य
गीता में भगवान ने दो शब्दों को अत्यंत स्पष्टता से प्रस्तुत किया है:
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क्षेत्र (Field): यह शरीर है — मिट्टी, भूमि, या खेत के समान, जहां कर्मों का बीजारोपण होता है।
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क्षेत्रज्ञ (Knower of the Field): यह आत्मा है — वह चेतन सत्ता जो शरीर का उपयोग करती है।
गीता अध्याय 13, श्लोक 1–2:
“इदम् शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥”
अर्थ: यह शरीर ‘क्षेत्र’ है और जो इसे जानता है वह ‘क्षेत्रज्ञ’ है।
बिना आत्मा के परिचय के, कोई भी कर्म भ्रमपूर्ण हो सकता है। लेकिन आत्मबोध की स्थिति में किया गया कर्म श्रेष्ठ और सात्विक बनता है।
प्रश्न: क्षेत्र और क्षेत्रज — कौन मालिक है किसका?
बहुतों ने इस विषय में विचार रखा:
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कुछ ने कहा: “क्षेत्र मालिक है क्षेत्रज का”
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कुछ ने कहा: “क्षेत्रज मालिक है क्षेत्र का”
सही उत्तर: आत्मा (क्षेत्रज्ञ) ही शरीर (क्षेत्र) की मालिक है।
जैसे ड्राइवर गाड़ी को चलाता है, वैसे ही आत्मा शरीर को संचालित करती है।
यदि ड्राइवर भूल जाए कि वह कौन है, तो दुर्घटना निश्चित है। इसी प्रकार आत्मा जब देह को ही स्वयं मान लेती है, तो विकार और उलझनें जन्म लेती हैं।
आत्मा का स्वरूप — एक दिव्य यात्री
ब्रह्मा कुमारी की मुरली (1 अक्टूबर 1970) में कहा गया:
“तुम आत्माएं इस शरीर में यात्री हो। यह शरीर तुम्हारा स्थायी घर नहीं है। तुम्हारा घर है — शांति धाम।”
अतिथि का अर्थ होता है — जिसकी कोई निश्चित तिथि नहीं।
आत्मा अनादि, अविनाशी, और इस संसार में एक अतिथि के रूप में कुछ समय के लिए आई हुई सत्ता है।
धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र की गीता व्याख्या
गीता का पहला श्लोक:
“धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः…”
भावार्थ: यह संसार एक धर्मभूमि है — जहाँ आत्माएं अपने-अपने कर्मों से धर्म की रक्षा करती हैं।
ब्रह्मा कुमारियों की मुरली (28 सितंबर 1972) में उल्लेख है:
“गीता में ही सच्चा आत्मा और परमात्मा का परिचय है। परंतु नाम बदलने से सारी सृष्टि उलझ गई।”
अब परमात्मा स्वयं आकर पुनः क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान दे रहे हैं।
कल्पवृक्ष और युगचक्र
गीता अध्याय 15:
“ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम् अश्वत्थम् प्राहुरव्ययम्…”
इसका अर्थ है — यह संसार एक उल्टा वृक्ष है जिसकी जड़ें ऊपर (परमधाम) हैं और शाखाएं नीचे (संसार में) फैली हैं।
ब्रह्मा कुमारी ज्ञान में इसे कल्पवृक्ष कहा गया है, जिसमें पाँच युग आते हैं:
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सतयुग
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त्रेतायुग
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द्वापरयुग
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कलियुग
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संगमयुग
आत्माएं परमधाम से आती हैं, कर्म करती हैं, और फिर वापसी की यात्रा पर निकलती हैं।
देह-अभिमान बनाम आत्म-अभिमान
मुरली (19 मार्च 1982):
“कर्मों का रंग आत्मा के रंग में चढ़ा है। यदि आत्मा स्वयं को क्षेत्रज्ञ न समझे, तो कर्म उलझन बन जाते हैं।”
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देह-अभिमान: ईर्ष्या, मोह, अहंकार, द्वेष
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आत्म-अभिमान: सेवा, सहनशक्ति, शांति, सच्चा प्रेम
सच्चा आत्म-स्मरण ही जीवन की गरिमा को पुनर्स्थापित करता है।
पूर्णता का आधार — आत्मा और परमात्मा का सच्चा परिचय
मुरली (27 फरवरी 1986):
“बिना आत्मा और परमात्मा के परिचय के, मनुष्य अनाथ बन जाता है। बाप होते हुए भी यदि आत्मा अपने बाप को न पहचाने, तो वह स्वयं को अनाथ समझेगी।”
परमात्मा ही ज्ञान का सागर हैं — जो आत्मा को उसका सच्चा परिचय देते हैं, और उसे पुनः जागरूक बनाते हैं।
निष्कर्ष
तत्व | अर्थ |
---|---|
आत्मा | क्षेत्रज्ञ (Knower of the field) |
शरीर | क्षेत्र (Field for action) |
संसार | धर्म और कर्म की भूमि |
परमात्मा | ज्ञानदाता, मार्गदर्शक, आत्मा को पुनः जागृत करने वाला |
आत्मज्ञान | जीवन परिवर्तन की चाबी |
अंतिम संदेश
यदि आत्मा स्वयं को पहचाने, परमात्मा से संबंध जोड़े और कर्मों को आत्म-स्मृति में करे — तभी सच्चा धर्म, शांति और मुक्ति का अनुभव संभव है। यही है गीता का मूल सन्देश।
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प्रश्नोत्तर श्रृंखला: गीता का भगवान कौन?
विषय: क्षेत्र और क्षेत्रज का सही परिचय
प्रश्न 1: गीता का “भगवान” कौन है?
उत्तर: गीता में “भगवान” वह है जो परमधाम से आकर आत्मा को उसका सच्चा परिचय देता है। ब्रह्मा कुमारी ज्ञान अनुसार, वह परमात्मा शिव है, जो श्रीकृष्ण के माध्यम से ज्ञान देते हैं।
प्रश्न 2: गीता में “क्षेत्र” और “क्षेत्रज्ञ” का क्या अर्थ है?
उत्तर:
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क्षेत्र = शरीर (कर्म भूमि)
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क्षेत्रज्ञ = आत्मा (जो इस शरीर को जानती और चलाती है)
प्रश्न 3: गीता के अनुसार शरीर और आत्मा में मालिक कौन है?
उत्तर: आत्मा (क्षेत्रज्ञ) ही शरीर (क्षेत्र) की मालिक है, जैसे ड्राइवर कार का संचालक होता है।
प्रश्न 4: आत्मा को अतिथि क्यों कहा गया है?
उत्तर: आत्मा को अतिथि इसलिए कहा गया है क्योंकि वह अनादि, अविनाशी है और कुछ समय के लिए शरीर रूपी घर में आती है — उसका स्थायी घर परमधाम है।
प्रश्न 5: गीता के पहले श्लोक में “धर्मक्षेत्र” का क्या अर्थ है?
उत्तर: “धर्मक्षेत्र” का अर्थ है — यह संसार, जहाँ आत्मा अपने कर्मों द्वारा धर्म की स्थापना करती है।
प्रश्न 6: गीता में बताया गया “कल्पवृक्ष” क्या है?
उत्तर: यह संसार एक उल्टा वृक्ष है जिसकी जड़ें ऊपर (परमधाम) और शाखाएं नीचे (संसार) हैं। ब्रह्माकुमारी ज्ञान में इसे कल्पवृक्ष कहा गया है, जिसमें 5 युग होते हैं:
सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग, संगमयुग।
प्रश्न 7: देह-अभिमान और आत्म-अभिमान में क्या अंतर है?
उत्तर:
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देह-अभिमान से अहंकार, मोह, ईर्ष्या पैदा होती है।
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आत्म-अभिमान से शांति, सेवा, प्रेम और सहनशीलता प्रकट होती है।
प्रश्न 8: आत्मा के बिना कर्म क्यों भ्रम में बदल जाते हैं?
उत्तर: जब आत्मा स्वयं को नहीं पहचानती, तो वह देह के आधार पर कर्म करती है — जिससे कर्म विकारी हो जाते हैं। आत्मबोध से कर्म सात्विक बनते हैं।
प्रश्न 9: पूर्णता प्राप्त करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर: आत्मा और परमात्मा का सच्चा परिचय। यही जीवन परिवर्तन की चाबी है।
प्रश्न 10: गीता का मूल संदेश क्या है?
उत्तर: “स्वयं को आत्मा समझो, परमात्मा को जानो, और आत्म-स्मृति में श्रेष्ठ कर्म करो। यही मुक्ति और जीवन का लक्ष्य है।”
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