(35) जब दुनिया शुद्ध थी और भक्ति नहीं थी क्याें ?
( प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
जब दुनिया शुद्ध थी और भक्ति नहीं थी – क्यों?
(सतयुग में पूजा क्यों नहीं होती, और शिव-देवताओं की याद कब शुरू हुई?)
1. प्रस्तावना: क्या देवताओं को पुकारने से वे आते हैं?
आज हम एक गहरे और अत्यंत महत्वपूर्ण विषय को समझने जा रहे हैं:
“जब दुनिया अपवित्र हो जाती है, तभी देवताओं को पुकारा जाता है — पर क्या वे आते हैं?”
यह प्रश्न केवल भावना का नहीं, ज्ञान का है। आज की दुनिया में मनुष्य भी अपवित्र है और पाँचों तत्व भी। ऐसे वातावरण में देवता आत्माएँ क्यों नहीं आतीं?
क्योंकि देवता वहाँ ही आते हैं जहाँ पवित्रता हो, और सतयुग की वह अवस्था अब नहीं रही।
2. वर्तमान दुनिया की स्थिति – रावण राज्य की पहचान
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आज की दुनिया को “रावण राज्य” कहा जाता है।
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यहाँ मनुष्य दुखी, अशांत, इच्छाओं से भरा हुआ है।
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पाँचों तत्व — धरती, जल, वायु, अग्नि और आकाश — सभी प्रदूषित हो चुके हैं।
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ऐसे अपवित्र और तामसी संसार में कोई भी देवता नहीं आ सकता।
निष्कर्ष:
लोग पुकारते हैं — “हे देवी-देवता आओ!” परंतु वे नहीं आते, क्योंकि अब यह वह धरती नहीं रही जहाँ वे चल सकें।
3. सतयुग में भक्ति क्यों नहीं होती?
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सत्युग में मनुष्य स्वयं देवता होता है — पूर्ण, पवित्र, ज्ञानवान और संपन्न।
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वहाँ कोई भी किसी को याद नहीं करता, क्योंकि सबकुछ सहज रूप से प्राप्त होता है।
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न शिव की मूर्ति होती है, न लक्ष्मी-नारायण की तस्वीरें।
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भक्ति मार्ग की शुरुआत द्वापर से होती है, जब आत्मा अपनी पहचान खो देती है।
उदाहरण:
जैसे सूरज के सामने दीपक की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही सतयुग में परमात्मा की याद की आवश्यकता नहीं।
4. “स्टैम्प” कब और क्यों लगती है?
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आपने सुना होगा — “लक्ष्मी-नारायण की स्टैम्प जारी हुई“
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इसका तात्पर्य है:
जब कोई श्रेष्ठता समाप्त हो जाती है, और उसकी केवल स्मृति बचती है, तब उसकी पूजा शुरू होती है। -
सतयुग में लक्ष्मी-नारायण को कोई भगवान नहीं कहता, वे वहाँ सामान्य राजपरिवार के राजा-रानी होते हैं — श्रेष्ठ आत्माएँ।
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लेकिन जब उनका राज्य समाप्त होता है, तब उनकी स्मृति के लिए मूर्तियाँ बनती हैं, और पूजा आरंभ होती है।
5. शिव की पूजा क्यों और कब शुरू हुई?
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सतयुग और त्रेता में शिव की पूजा नहीं होती।
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क्योंकि परमात्मा शिव वहाँ कोई कार्य नहीं कर रहे होते — वे आते हैं संगमयुग में।
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द्वापर से आत्मा शरीर को ही आत्मा मान लेती है, और तब शुरू होती है परमात्मा की पुकार।
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सोमनाथ मंदिर, जो शिव बाबा का प्रसिद्ध मंदिर है, द्वापर युग में बना — यह भी प्रमाण है कि भक्ति मार्ग की शुरुआत वहाँ से होती है।
6. निष्कर्ष – जब श्रेष्ठता खो जाती है, तब पूजा शुरू होती है
स्थिति | क्या होता है? |
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जब आत्मा स्वयं देवता होती है | तब याद नहीं करती |
जब श्रेष्ठता समाप्त होती है | तब पूजा-पाठ शुरू होता है |
जब लक्ष्मी-नारायण का राज्य चला जाता है | तब उनकी स्टैम्प लगती है |
जब आत्मा अंधकार में चली जाती है | तब शिव की याद शुरू होती है |
7. संगम युग – जहाँ शिव स्वयं आते हैं
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भक्ति का अंत और ज्ञान की शुरुआत संगम युग में होती है।
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परमात्मा शिव स्वयं आकर ज्ञान देते हैं, जिससे आत्मा पुनः देवता बनने की यात्रा पर चलती है।
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यह ज्ञान हमें यह स्मरण कराता है कि सच्चा देवत्व बाहर से नहीं, हमारी आत्मा के भीतर से आता है।
संदेश:
अब समय है देवता बनने का।
अब समय है सतयुगी शुद्धता को अपनाने का।
अब समय है — शिव बाबा द्वारा दी जा रही ज्ञान की वर्षा को आत्मसात करने का।
अंतिम पंक्ति:
“जब दुनिया शुद्ध थी, तब भक्ति नहीं थी।
अब भक्ति है, क्योंकि शुद्धता खो चुकी है।
अब संगम युग है — जहां परमात्मा स्वयं आकर
हमें फिर से वही शुद्ध, देवता स्वरूप बना रहे हैं।”
इस अध्याय का शीर्षक दोहराएं:
जब दुनिया शुद्ध थी और भक्ति नहीं थी – क्यों?
प्रश्न 1:सतयुग में शिव और लक्ष्मी-नारायण की पूजा क्यों नहीं होती थी?
उत्तर:क्योंकि सतयुग में मनुष्य स्वयं देवता होता है — पूर्ण, पवित्र, सुखी और संतुष्ट।
उस समय सब कुछ प्राप्त होता है, इसलिए किसी को याद करने या पूजा करने की आवश्यकता ही नहीं होती।
शिव बाबा भी उस समय कोई कार्य नहीं कर रहे होते, इसलिए उनकी भी पूजा नहीं होती। पूजा तब शुरू होती है जब श्रेष्ठता खो जाती है।
प्रश्न 2:अगर लोग आज भी देवताओं को पुकारते हैं, तो क्या वे सच में आते हैं?
उत्तर:नहीं। आज की दुनिया अपवित्र है — मनुष्य भी और पाँचों तत्व भी।
ऐसे वातावरण में कोई “देव आत्मा” नहीं आ सकती।
देवता केवल तब आते हैं जब धरती पवित्र होती है। आज वे केवल स्मृति रूप में हैं, मूर्तियों और चित्रों में — वास्तव में नहीं।
प्रश्न 3:देवताओं की पूजा कब और क्यों शुरू हुई?
उत्तर:देवताओं की पूजा द्वापर युग से शुरू होती है।
जब आत्मा अपने देवता स्वरूप को भूल जाती है और भटकने लगती है, तब वह अपनी खोई हुई श्रेष्ठता की स्मृति में देवताओं को पूजने लगती है।
सतयुग और त्रेता युग में न कोई पूजा होती है, न कोई मंदिर।
प्रश्न 4:“लक्ष्मी-नारायण की स्टैम्प जारी हुई” — इसका क्या अर्थ है?
उत्तर:जब उनका राज्य समाप्त होता है, तब उनकी स्मृति में मूर्तियाँ और चित्र बनाए जाते हैं — यह “स्टैम्प जारी होना” कहलाता है।
राज करते समय कोई उन्हें भगवान नहीं मानता, लेकिन जब वे चले जाते हैं, तब उनकी पूजा शुरू होती है।
प्रश्न 5:शिव बाबा की पूजा कब और क्यों शुरू होती है?
उत्तर:शिव की पूजा द्वापर युग से शुरू होती है, जब आत्मा अज्ञान में चली जाती है।
सतयुग में शिव कोई कार्य नहीं कर रहे होते, इसलिए उनकी पूजा नहीं होती।
जब आत्मा शरीर को अपना स्वरूप समझने लगती है, तब वह परमात्मा को पुकारती है।
सोमनाथ मंदिर इसी द्वापर युग में बनता है, सतयुग में नहीं।
प्रश्न 6:क्या पूजा का आरंभ श्रेष्ठता की निशानी है या उसकी समाप्ति की?
उत्तर:पूजा तब शुरू होती है जब श्रेष्ठता समाप्त हो जाती है।
जब आत्मा स्वयं देवता नहीं रहती, तब देवताओं को पुकारना शुरू करती है।
इसलिए पूजा, भक्ति मार्ग की शुरुआत है — प्राप्ति की नहीं, खोज की स्थिति है।
प्रश्न 7:तो फिर सच्चे देवता कब और कैसे बनते हैं?
उत्तर:सच्चे देवता बनने की प्रक्रिया संगम युग में शुरू होती है, जब परमात्मा शिव स्वयं आकर आत्माओं को ज्ञान देते हैं।
यह ज्ञान आत्मा को फिर से शुद्ध बनाता है और सतयुगी देवता बनने की यात्रा शुरू होती है।
निष्कर्ष:
जब आत्मा स्वयं शुद्ध और शक्तिशाली होती है, तो उसे न पूजा की आवश्यकता होती है, न पुकार की।
सतयुग में “याद नहीं होती, प्राप्ति होती है।”
और संगम युग वह समय है, जब परमात्मा शिव आकर फिर से आत्मा को उसकी खोई हुई देवता स्थिति प्रदान करते हैं।
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