अव्यक्त मुरली-(49)23-12-1983 “डबल लाइट की स्थिति से मेहनत समाप्त”
(प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
19-12-1983 “परमात्म प्यार – नि:स्वार्थ प्यार”
आज स्नेह के सागर बाप अपने स्नेही बच्चों को देख रहे हैं। स्नेही सब बच्चे हैं फिर भी नम्बरवार हैं। एक हैं स्नेह करने वाले। दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले। तीसरे हैं सदा स्नेह स्वरुप बन स्नेह के सागर में समाए हुए, जिसको लवलीन बच्चे कहते। लवली और लवलीन दोनों में अन्तर है। बाप का बनना अर्थात् स्नेही, लवलीन बनना। सारे कल्प में कभी भी और किस द्वारा भी यह ईश्वरीय स्नेह, परमात्म प्यार प्राप्त हो नहीं सकता। परमात्म प्यार अर्थात् नि:स्वार्थ प्यार। परमात्म प्यार इस श्रेष्ठ ब्राह्मण जन्म का आधार है। परमात्म प्यार जन्म-जन्म की पुकार का प्रत्यक्ष फल है। परमात्म प्यार नये जीवन का जीयदान है। परमात्म प्यार नहीं तो जीवन नीरस, सूखे गन्ने के मुआफिक है। परमात्म प्यार बाप के समीप लाने का साधन है। परमात्म प्यार सदा बापदादा के साथ अर्थात् परमात्मा को साथी अनुभव कराता है। परमात्म प्यार मेहनत से छुड़ाए सहज और सदा के योगी, योगयुक्त स्थिति का अनुभव कराता है। परमात्म प्यार सहज ही तीन मंजिल पार करा देता है।
1. देह-भान की विस्मृति। 2. देह के सर्व सम्बन्धों की विस्मृति। 3. देह की, देह के दुनिया की अल्पकाल की प्राप्ति की आकर्षणमय पदार्थों का आकर्षण सहज समाप्त हो जाता है। त्याग करना नहीं पड़ता लेकिन श्रेष्ठ सर्व प्राप्ति का भाग्य स्वत: ही त्याग करा देता है। तो आप प्रभु प्रेमी बच्चों ने त्याग किया वा भाग्य लिया? क्या त्याग किया? अनेक चत्तियां लगा हुआ वस्त्र, जड़जड़ीभूत पुरानी अन्तिम जन्म की देह का त्याग, यह त्याग है? जिसे स्वयं भी चलाने में मजबूर हो, उसके बदले फरिश्ता स्वरुप लाइट का आकार जिसमें कोई व्याधि नहीं, कोई पुराने संस्कार स्वभाव का अंश नहीं, कोई देह का रिश्ता नहीं, कोई मन की चंचलता नहीं, कोई बुद्धि के भटकने की आदत नहीं – ऐसा फरिश्ता स्वरुप, प्रकाशमय काया प्राप्त होने के बाद पुराना छोड़ना, यह छोड़ना हुआ? लिया क्या और दिया क्या? त्याग है वा भाग्य है? ऐसे ही देह के स्वार्थी सम्बन्ध, सुख-शान्ति का चैन छीनने वाले विनाशी सम्बन्धी, अभी भाई है अभी स्वार्थवश दुश्मन हो जाते, दु:ख और धोखा देने वाले हो जाते, मोह की रस्सियों में बांधने वाले, ऐसे अनेक सम्बन्ध छोड़ एक में सर्व सुखदाई सम्बन्ध प्राप्त करते तो क्या त्याग किया? सदा लेने वाले सम्बन्ध छोड़े, क्योंकि सभी आत्मायें लेती ही हैं, देते नहीं। एक बाप ही दातापन का प्यार देने वाला है, लेने की कोई कामना नहीं। चाहे कितनी भी धर्मात्मा, महात्मा, पुण्य आत्मा हो, गुप्त दानी हो, फिर भी लेता है, दाता नहीं है। स्नेह भी शुभ लेने की कामना वाला होगा। बाप तो सम्पन्न सागर है इसलिए वह दाता है, परमात्म प्यार ही दातापन का प्यार है, इसलिए उनको देना नहीं, लेना है। ऐसे ही विनाशी पदार्थ विषय भोग अर्थात् विष भरे भोग हैं। मेरे-मेरे की जाल में फँसाने वाले विनाशी पदार्थ भोग-भोग क्या बन गये? पिंजड़े के पंछी बन गये ना। ऐसे पदार्थ, जिसने कखपति बना दिया, उसके बदले सर्वश्रेष्ठ पदार्थ देते जो पदमापद्मपति बनाने वाले हैं। तो पदम पाकर, कख छोड़ना, क्या यह त्याग हुआ! परमात्म प्यार भाग्य देने वाला है। त्याग स्वत: ही हुआ पड़ा है। ऐसे सहज सदा के त्यागी ही श्रेष्ठ भाग्यवान बनते हैं।
कभी-कभी बाप के आगे कई लाडले ही कहें, लाड-प्यार दिखाते हैं कि हमने इतना त्याग किया, इतना छोड़ा फिर भी ऐसे क्यों! बापदादा मुस्कराते हुए बच्चों को पूछते हैं कि छोड़ा क्या और पाया क्या? इसकी लिस्ट निकालो। कौन सा तरफ भारी है – छोड़ने का वा पाने का? आज नहीं तो कल जो छोड़ना ही है, मजबूरी से भी छोड़ना ही पड़ेगा, अगर पहले से ही समझदार बन प्राप्त कर फिर छोड़ा तो वह छोड़ना हुआ क्या! भाग्य के वर्णन के आगे त्याग कौड़ी है, भाग्य हीरा है। ऐसे समझते हो ना! वा बहुत त्याग किया है? बहुत छोड़ा है? छोड़ने वाले हो या लेने वाले हो? कभी भी स्वप्न में भी ऐसा संकल्प किया तो क्या होगा? अपने भाग्य की रेखा, मैंने किया, मैंने छोड़ा, इससे लकीर को मिटाने के निमित्त बन जाते। इसलिए स्वप्न में भी कब ऐसा संकल्प नहीं करना।
प्रभु प्यार सदा समर्पण भाव स्वत: ही अनुभव कराता है। समर्पण भाव बाप समान बनाता। परमात्म प्यार बाप के सर्व खजानों की चाबी है क्योंकि प्यार व स्नेह अधिकारी आत्मा बनाता है। विनाशी स्नेह, देह का स्नेह राज्य भाग्य गंवाता है। अनेक राजाओं ने विनाशी स्नेह के पीछे राज्य भाग्य गंवाया। विनाशी स्नेह भी राज्य भाग्य से श्रेष्ठ माना गया है। परमात्म प्यार, गंवाया हुआ राज्य भाग्य सदाकाल के लिए प्राप्त कराता है। डबल राज्य अधिकारी बनाता है। स्वराज्य और विश्व का राज्य पाते। ऐसे परमात्म प्यार प्राप्त करने वाली विशेष आत्मायें हो। तो प्यार करने वाले नहीं लेकिन प्यार में सदा समाये हुए लवलीन आत्माएं बनो। समाये हुए समान हैं – ऐसे अनुभव करते हो ना!
नये-नये आये हैं तो नये आगे जाने के लिए सिर्फ एक ही बात का ध्यान रखो। सदा प्रभु प्यार के प्यासे नहीं लेकिन प्रभु प्यार के ही पात्र बनो। पात्र बनना ही सुपात्र बनना है। सहज है ना। तो ऐसे आगे बढ़ो। अच्छा!
ऐसे पात्र सो सुपात्र बच्चों को, प्रभु प्रेम की अधिकारी आत्माओं को, प्रभु प्यार द्वारा सर्वश्रेष्ठ भाग्य प्राप्त करने वाली भाग्यवान आत्माओं को, सदा स्नेह के सागर में समाये हुए बाप समान बच्चों को, सर्व प्राप्तियों के भण्डार सम्पन्न आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ:-
प्रश्न:- महा-तपस्या कौन सी है? जिस तपस्या का बल विश्व को परिवर्तन कर सकता है?
उत्तर:- एक बाप दूसरा न कोई यह है महा-तपस्या। ऐसी स्थिति में स्थित रहने वाले महातपस्वी हुए। तपस्या का बल श्रेष्ठ बल गाया जाता है। जो इस तपस्या में रहते – एक बाप दूसरा न कोई, उनमें बहुत बल है। इस तपस्या का बल विश्व परिवर्तन कर लेता है। हठयोगी एक टांग पर खड़े होकर तपस्या करते हैं लेकिन आप बच्चे एक टांग पर नहीं, एक की स्मृति में रहते हो, बस एक ही एक। ऐसी तपस्या विश्व परिवर्तन कर देगी। तो ऐसे विश्व कल्याणकारी अर्थात् महान तपस्वी बनो।
अध्याय: परमात्मा प्यार – नि:स्वार्थ प्यार
मुरली तिथि: 19 दिसंबर 1983
प्रस्तावना: स्नेह के सागर का दर्शन
आज बाप अपने स्नेही बच्चों को देख रहे हैं। सभी बच्चे स्नेही हैं, लेकिन तीन प्रकार के हैं:
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स्नेह करने वाले – जो बाप से प्रेम करते हैं।
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स्नेह निभाने वाले – जो प्रेम को स्थायी रूप से निभाते हैं।
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लवलीन बच्चे – जो सदा स्नेह स्वरूप बनकर बाप के स्नेह के सागर में समाए हुए हैं।
नोट: लवली और लवलीन में अंतर है। लवली बनने का अर्थ है स्नेही होना, लवलीन बनने का अर्थ है बाप में समाया रहना।
मुख्य बिंदु:
सिर्फ बाप से ही ईश्वरीय, नि:स्वार्थ प्यार प्राप्त किया जा सकता है। यह परमात्म प्यार है।
परमात्म प्यार: जीवन का आधार
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नि:स्वार्थ प्यार: जीवन में सर्वोच्च आनंद, सुख, और शक्ति का स्रोत।
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जनम-जनम की पुकार का फल: हर नए जन्म का वास्तविक उद्देश्य।
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साधन: यह बाप के समीप लाने का मुख्य माध्यम है।
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योगी अनुभव: परमात्म प्यार से सहज तीन मंजिलें पार होती हैं:
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देह-भान की विस्मृति
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सर्व संबंधों की विस्मृति
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संसारिक आकर्षणों का सहज त्याग
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उदाहरण: जैसे सूखे गन्ने का रस खत्म हो जाता है, वैसे ही जब आत्मा परमात्म प्यार में डूबी होती है तो worldly मोह स्वतः समाप्त हो जाता है।
त्याग और भाग्य: क्या छोड़ा और क्या पाया?
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प्रश्न: क्या आपने त्याग किया या भाग्य प्राप्त किया?
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देह और पुराने संस्कारों को छोड़कर फरिश्ता स्वरूप प्रकाशमय शरीर प्राप्त करना त्याग है।
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विनाशी संबंध और पदार्थ छोड़कर बाप का दाता स्वरूप प्यार पाना भाग्य है।
मुख्य बिंदु: छोड़ना छोटा काम है, लेकिन लेने का भाग्य सर्वोच्च है। इसलिए हमेशा अपने जीवन में पाने के नजरिए से ध्यान दें, त्याग स्वतः ही हो जाता है।
प्रभु प्यार का अनुभव: समर्पण भाव
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समर्पण भाव बच्चों को बाप समान बनाता है।
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परमात्मा का स्नेह पाने वाले बच्चे सर्व प्राप्तियों के अधिकारी बन जाते हैं।
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विनाशी स्नेह या देह का मोह केवल राज्य भाग्य खोने वाला है।
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परमात्म प्यार सदा डबल राज्य अधिकारी बनाता है – स्वराज्य और विश्व का राज्य।
उदाहरण: अनेक राजाओं ने विनाशी स्नेह के पीछे अपना राज्य खो दिया, लेकिन परमात्म प्यार पाने वाले बच्चे सदा सर्व प्राप्तियों वाले बनते हैं।
नए बच्चों के लिए मार्गदर्शन
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नवागत बच्चों को केवल एक बात का ध्यान रखना चाहिए:
प्रभु प्यार के पात्र बनो। -
पात्र बनना ही सुपात्र बनने के लिए पर्याप्त है।
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ऐसे पात्र और सुपात्र बच्चों को बापदादा का स्नेह और सर्व प्राप्तियों का भंडार मिलता है।
पार्टियों के साथ: प्रश्न और उत्तर
प्रश्न: महा-तपस्या कौन सी है?
उत्तर: केवल एक बाप, दूसरा न कोई।
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इस तपस्या में रहने वाले महातपस्वी विश्व परिवर्तन का बल रखते हैं।
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हठयोगी केवल बाहरी तपस्या करते हैं, लेकिन बाप की स्मृति में स्थिर रहना ही सच्ची महा-तपस्या है।
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परिणाम: विश्व कल्याणकारी बनते हैं।
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स्नेह के सागर का दर्शन
प्रश्न 1: स्नेह के सागर में बच्चों के कितने प्रकार हैं?
उत्तर: तीन प्रकार के हैं –-
स्नेह करने वाले – जो बाप से प्रेम करते हैं।
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स्नेह निभाने वाले – जो प्रेम को स्थायी रूप से निभाते हैं।
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लवलीन बच्चे – जो सदा स्नेह स्वरूप बनकर बाप के स्नेह के सागर में समाए हुए हैं।
प्रश्न 2: लवली और लवलीन में क्या अंतर है?
उत्तर:-
लवली: स्नेही होना, बाप से प्रेम करना।
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लवलीन: बाप में समाया रहना, सदा स्नेह में डूबा होना।
प्रश्न 3: परमात्म प्यार का मुख्य स्रोत क्या है?
उत्तर: केवल बाप से ही ईश्वरीय, नि:स्वार्थ प्यार प्राप्त किया जा सकता है।
परमात्म प्यार: जीवन का आधार
प्रश्न 4: नि:स्वार्थ प्यार का महत्व क्या है?
उत्तर: यह जीवन में सर्वोच्च आनंद, सुख, और शक्ति का स्रोत है।प्रश्न 5: जनम-जनम की पुकार और परमात्म प्यार का संबंध क्या है?
उत्तर: यह हर नए जन्म का वास्तविक उद्देश्य है। परमात्म प्यार ही जीवन का वास्तविक साधन है।प्रश्न 6: परमात्म प्यार से कौन-कौन सी मंजिलें पार होती हैं?
उत्तर:-
देह-भान की विस्मृति
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सर्व संबंधों की विस्मृति
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संसारिक आकर्षणों का सहज त्याग
उदाहरण: जैसे सूखे गन्ने का रस खत्म हो जाता है, वैसे ही जब आत्मा परमात्म प्यार में डूबी होती है तो worldly मोह स्वतः समाप्त हो जाता है।
त्याग और भाग्य
प्रश्न 7: क्या त्याग किया या भाग्य प्राप्त किया?
उत्तर:-
त्याग: देह और पुराने संस्कार छोड़कर फरिश्ता स्वरूप प्रकाशमय शरीर प्राप्त करना।
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भाग्य: विनाशी संबंध और पदार्थ छोड़कर बाप का दाता स्वरूप प्यार पाना।
प्रश्न 8: जीवन में कौन अधिक महत्वपूर्ण है – त्याग या भाग्य?
उत्तर: छोड़ना छोटा काम है, लेकिन लेने का भाग्य सर्वोच्च है। इसलिए हमेशा पाने के नजरिए से ध्यान दें, त्याग स्वतः हो जाता है।
प्रभु प्यार का अनुभव: समर्पण भाव
प्रश्न 9: समर्पण भाव का अनुभव बच्चों पर क्या प्रभाव डालता है?
उत्तर: यह बच्चों को बाप समान बनाता है और सर्व प्राप्तियों के अधिकारी बनाता है।प्रश्न 10: विनाशी स्नेह या देह का मोह क्या परिणाम लाता है?
उत्तर: केवल राज्य भाग्य खोने वाला है।प्रश्न 11: परमात्म प्यार से कौन-कौन से अधिकार मिलते हैं?
उत्तर:-
सदा डबल राज्य अधिकारी बनाता है – स्वराज्य और विश्व का राज्य।
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सर्व प्राप्तियों का अधिकार।
उदाहरण: अनेक राजाओं ने विनाशी स्नेह के पीछे अपना राज्य खो दिया, लेकिन परमात्म प्यार पाने वाले बच्चे सदा सर्व प्राप्तियों वाले बनते हैं।
नए बच्चों के लिए मार्गदर्शन
प्रश्न 12: नवागत बच्चों को क्या ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर: केवल एक बात – प्रभु प्यार के पात्र बनो।प्रश्न 13: पात्र बनना क्यों आवश्यक है?
उत्तर: पात्र बनना ही सुपात्र बनने के लिए पर्याप्त है। ऐसे पात्र बच्चों को बापदादा का स्नेह और सर्व प्राप्तियों का भंडार मिलता है।
पार्टियों के साथ: प्रश्न और उत्तर
प्रश्न 14: महा-तपस्या कौन सी है?
उत्तर: केवल एक बाप, दूसरा न कोई।प्रश्न 15: इस तपस्या में रहने वाले महातपस्वी क्या कर सकते हैं?
उत्तर: विश्व परिवर्तन का बल रखते हैं।प्रश्न 16: हठयोगी और बाप की स्मृति में रहने वाले बच्चों में क्या अंतर है?
उत्तर: हठयोगी केवल बाहरी तपस्या करते हैं, लेकिन बाप की स्मृति में स्थिर रहना ही सच्ची महा-तपस्या है।प्रश्न 17: महा-तपस्या का परिणाम क्या है?
उत्तर: विश्व कल्याणकारी बनते हैं। -
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डिस्क्लेमर
यह वीडियो ब्रह्माकुमारी आध्यात्मिक शिक्षाओं पर आधारित है। इसमें बताए गए आध्यात्मिक दृष्टांत और उदाहरण वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित नहीं हैं। यह केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन और प्रेरणा के लिए प्रस्तुत किया गया है।
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