विश्व नाटक :-(11)क्या डार्विन का सिद्धांत सच में उलझा हुआ है?
(प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
क्या डार्विन का सिद्धांत सच में उलझा हुआ है?
विज्ञान जिसने खुद अपने सवाल बढ़ा दिए।
डार्विन का सिद्धांत सच में उलझा हुआ है — विज्ञान जिसने खुद अपने सवाल बढ़ा दिए।
जब समाधान उलझन बन गया, सारी दुनिया ने उसे स्वीकार कर लिया था कि कैसे डार्विन ने बताया, उसको हम पढ़ जानेंगे।
परंतु लास्ट में आकर समाधान ही उलझन बन गया।
सामान्यता किसी सिद्धांत का उद्देश्य होता है किसी प्रश्न का उत्तर देना, किसी समस्या को सुलझाना।
परंतु डार्विन का विकास सिद्धांत, जिसे “थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन” कहते हैं, समाधान बनने की बजाय स्वयं एक नई पहेली बन गया।
विज्ञान ने यह बताने की कोशिश की कि जीवन पदार्थ से विकसित हुआ है — ये सारी चीज़ें जो थीं, उनसे जीवन विकसित हुआ।
परंतु अंत में उसने जीवन के अर्थ को और अधिक उलझा दिया।
डार्विन की उलझनें: मोर की पूंछ और आंख
डार्विन स्वयं स्वीकार करते हैं कि कुछ जीवों की रचनाएं उनकी समझ से परे हैं।
उन्होंने लिखा — “मुझे याद है जब आंख का विचार मेरे भीतर भय पैदा करता था।
जब भी मैं मोर की पूंछ का नजारा देखता हूं, तो मैं भीतर से बेचैन हो जाता हूं।”
यह बयान एक महान वैज्ञानिक का आंतरिक द्वंद दिखाता है।
वे प्रकृति की सुंदरता और स्थिरता को देखकर स्वयं समझ नहीं पाए कि क्या यह सब केवल संयोग है?
इतनी सुंदर आंखें, इतने सुंदर पंख — क्या ये सब यूँ ही बन गए?
डार्विन का सिद्धांत क्या था?
पहले पानी में मछली पैदा हुई।
मछली से जलचर और स्थलचर जीव बने — जो पानी में भी रह सकते थे और जमीन पर भी।
फिर स्थलचर से धीरे-धीरे विकास हुआ — और अंत में बंदर से मनुष्य बना।
यही था डार्विन का सिद्धांत — कि ऐसे विकास हुआ है।
परंतु जब उसने खुद ही प्रश्न खड़े किए कि “ये कैसे हो गया?”,
तो सिद्धांत ने नई समस्याएं खड़ी कर दीं।
सिद्धांत को सबने मान लिया कि यह ठीक है,
पर डार्विन का सिद्धांत इस बात की व्याख्या करने में असफल रहा कि पहला जीव कैसे उत्पन्न हुआ?
जीवन का रहस्य – डीएनए और चेतना
डीएनए और चेतना का स्रोत क्या है?
डीएनए शरीर से जुड़ा है, और चेतना आत्मा से।
यह दोनों कहां से आईं?
डार्विन समझ नहीं पाए।
आंख, हृदय जैसी जटिल रचनाएं संयोग से कैसे बन गईं?
और यदि जीव निरंतर विकसित हो रहे हैं तो आज भी बंदर बंदर ही क्यों है?
अपूर्ण रूप क्यों नहीं मिलते?
जो भी जीव मिलता है, अपने पूरे रूप में मिलता है।
इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान आज तक नहीं दे सका।
बल्कि सिद्धांत ने जीवन का रहस्य और गहरा बना दिया।
सुखवाद और निरीश्वरवाद
डार्विन का सिद्धांत जब आया, तो उसने दो विचारधाराओं को बल दिया — सुखवाद और निरीश्वरवाद।
जैसे भारत में द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद चले,
वैसे पश्चिम में सुखवाद (Hedonism) और निरीश्वरवाद (Atheism) फैले।
सुखवादियों ने कहा — “सुख ही जीवन है।”
निरीश्वरवादियों ने कहा — “ईश्वर होता ही नहीं।”
डार्विन का सिद्धांत उनके लिए भावनात्मक हथियार बन गया।
उन्होंने कहा — “जब जीवन सहयोग से बना है, तो ईश्वर की आवश्यकता नहीं।”
इस विचार से मनुष्यों ने अपने नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से दूरी बना ली।
यही कारण है कि आज की भौतिकवादी दुनिया विज्ञान में आगे, पर शांति में पीछे है।
ईश्वरीय दृष्टि से सृष्टि का रहस्य
ईश्वरीय दृष्टि में सृष्टि का चक्र एकदम सटीक है।
बाबा कहते हैं — “सृष्टि कोई अनुमान से नहीं बनी। यह सटीक है, एक्यूरेट है, जो हर कल्प दोहराती है।”
(25 दिसंबर 1972 की मुरली)
प्रकृति में कोई भी अव्यवस्थित विकास नहीं होता।
हर आत्मा और हर जीव का नियत क्रम और पूर्वनिर्धारित भूमिका होती है — Pre-determined Role।
उदाहरण:
जैसे एक घड़ी देखकर हम समझ जाते हैं कि उसके पीछे कोई “घड़ीसाज” (Watchmaker) है,
वैसे ही इस विश्व की सटीकता यह सिद्ध करती है कि इसके पीछे कोई परम बुद्धिमान सृजनकर्ता —
“God, the Supreme Scientist” — है।
घड़ी स्वयं बन जाए, यह मानना उतना ही असंभव है जितना यह कहना कि जीवन अपने आप बन गया।
मुरली की दृष्टि से जीवन का रहस्य
(साकार मुरली – 9 जनवरी 1974)
बाबा कहते हैं —
“जीवन अनादि है। आत्मा अमर है। शरीर बदलता है। आत्मा न बनती है, न मिटती है।”
इसका अर्थ है — जीवन की कोई शुरुआत नहीं।
क्योंकि नया जीव बनाने के लिए पहले जीव की आवश्यकता होती है।
और निर्जीव से जीव नहीं बन सकता।
डेड बॉडी नई बॉडी नहीं बना सकती।
जीवित प्राणी ही नए जीव को जन्म दे सकता है।
आत्मा सहित जीव ही जीव की रचना करते हैं।
इसलिए, जीवन की रचना “निर्जीव पदार्थ” से नहीं,
“चैतन्य आत्मा” से होती है।
विज्ञान की स्वीकारोक्ति
आज के वैज्ञानिक भी मानते हैं कि “इवोल्यूशन थ्योरी” में मिसिंग लिंक्स हैं।
क्रमिक विकास की निरंतर श्रृंखला मौजूद नहीं है।
न मछली से मेंढक बनने का सबूत है, न बंदर से मनुष्य बनने का।
इसलिए सिद्धांत अपूर्ण है — अधूरा है — और सत्य अब भी खोजा जा रहा है।
जब विज्ञान रुक गया, तब ईश्वर बोले
डार्विन ने प्रश्न पूछे, पर उत्तर नहीं दिए।
विज्ञान ने प्रयोग किया, पर आत्मा को नहीं पहचाना।
अब परमात्मा शिव स्वयं आकर सिखा रहे हैं —
“मैं ही सृष्टि का बीज हूं। मैं ही सत्य ज्ञान दाता हूं।”
(साकार मुरली – 18 जनवरी 1969)
सच्ची समझ यह है:
जीवन पदार्थ से नहीं, परमात्मा के संकल्प से बना है।
बाबा ने सृष्टि को “क्रिएट” नहीं किया — उन्होंने “री-क्रिएट” किया।
अर्थात् बुझे हुए जीवन को नवजीवन दिया।
बाबा आत्मा को क्रिएट नहीं करते, वे उसे रिक्रिएट करते हैं —
पतित से पावन बनाते हैं।
आत्मा को अपने मूल गुण और शक्तियां पुनः प्राप्त करने की विधि सिखाते हैं।
विज्ञान बनाम ईश्वर
विज्ञान कहता है — जीवन संयोग है।
ईश्वर कहते हैं — जीवन अनादि है।
जैसे यह सृष्टि चक्र अनादि और अनंत है,
वैसे ही आत्मा भी अजर, अमर, अविनाशी है —
शरीर बदलते रहते हैं।
अब यह आपके विवेक पर निर्भर है —
आप मानते हैं “संयोग” को या “संयोजक परमात्मा” को।
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👉 डार्विन का पछतावा – निरीश्वरवादी सोच ने कैसे छीन ली आत्मा की शांति।

