Avyakt Murli-(29)The basis for becoming the most revered.

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अव्यक्त मुरली-(29)परम पूज्य बनने का आधार।/30-04-1983

( प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

30-04-1983 “परम पूज्य बनने का आधार”

सभी मधुबन महान तीर्थ पर मेला मनाने के लिए चारों ओर से पहुँच गये हैं। इसी महान तीर्थ के मेले की यादगार अभी भी तीर्थ स्थानों पर मेले लगते रहते हैं। इसी समय का हर श्रेष्ठ कर्म का यादगार चरित्रों के रूप में, गीतों के रूप में अभी भी देख और सुन रहे हो। चैतन्य श्रेष्ठ आत्मायें अपना चित्र और चरित्र देख सुन रही हैं। ऐसे समय पर बुद्धि में क्या श्रेष्ठ संकल्प चलता है? समझते हो ना कि हम ही थे, हम ही अब हैं और कल्प-कल्प हम ही फिर होंगे। यह ‘फिर से’ की स्मृति और नॉलेज और किसी भी आत्मा को, महान आत्मा को, धर्म आत्मा को वा धर्म पिता को भी नहीं है। लेकिन आप सब ब्राह्मण आत्माओं को इतनी स्पष्ट स्मृति है वा स्पष्ट नॉलेज है जैसे 5000 वर्ष की बात कल की बात है। कल थे आज हैं फिर कल होंगे। तो आज और कल इन दोनों शब्दों में 5000 वर्ष का इतिहास समाया हुआ है। इतना सहज और स्पष्ट अनुभव करते हो! कोई होंगे वा हम ही थे, हम ही हैं! जड़ चित्रों में अपने चैतन्य श्रेष्ठ जीवन का साक्षात्कार होता है? वा समझते हो कि यह महारथियों के चित्र हैं, वा आप सबके हैं? भारत में 33 करोड़ देवताओं को नमस्कार करते हैं अर्थात् आप श्रेष्ठ ब्राह्मण सो देवताओं के वंश के भी वंश, उनके भी वंश, सभी का पूजन नहीं तो गायन तो करते ही हैं। तो सोचो जो स्वयं पूर्वज हैं उन्हों का नाम कितना श्रेष्ठ होगा! और पूजन भी पूर्वजों का कितना श्रेष्ठ होगा। 9 लाख का भी गायन है। उससे आगे 16 हजार का गायन है फिर 108 का है फिर 8 का है। उससे आगे युगल दाने का है। नम्बरवार हैं ना। गायन तो सभी का है क्योंकि जो भाग्य विधाता बाप के बच्चे बने, इस भाग्य के कारण उन्हों का गायन और पूजन दोनों होता है लेकिन पूजन में दो प्रकार का पूजन है। एक है प्रेम की विधि पूर्वक पूजन और दूसरा है सिर्फ नियम पूर्वक पूजन। दोनों में अन्तर है ना। तो अपने से पूछो मैं कौन सी पूज्य आत्मा हूँ। पहले भी सुनाया था कि कोई-कोई भक्त, देवता नाराज न हो जाए इस भय से पूजा करते हैं। और कोई-कोई भक्त दिखावा मात्र भी पूजा करते हैं। और कोई-कोई समझते हैं भक्ति का नियम वा फर्ज निभाना है। चाहे दिल हो या न हो लेकिन निभाना है। ऐसे फर्ज समझ करते हैं। चारों ही प्रकार के भक्त किसी न किसी प्रकार से बनते हैं। यहाँ भी देखो देव आत्मा बनने वाले, ब्रह्माकुमार कुमारी कहलाने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं ना। नम्बरवन पूज्य सदा सहज स्नेह से और विधि पूर्वक याद और सेवा वा योगी आत्मा, दिव्यगुण धारण करने वाली आत्मा बन चल रहे हैं। चार सब्जेक्ट विधि और सिद्धि प्राप्त किये हुए हैं। दूसरे नम्बर के पूज्य विधि पूर्वक नहीं लेकिन नियम समझ करके करेंगे, चार ही सब्जेक्ट पूरे लेकिन विधि सिद्धि के प्राप्ति स्वरूप हो करके नहीं। लेकिन नियम समझकर चलना ही है, करना ही है, इसी लक्ष्य से जितना कायदा उतना फायदा प्राप्त करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। वह दिल का स्नेह स्वत: और सहज बनाता है और नियम पूर्वक वालों को कभी सहज कभी मुश्किल लगता। कभी मेहनत करनी पड़ती और कभी मुहब्बत की अनुभूति होती। नम्बरवन लवलीन रहते, नम्बर दो लव में रहते। नम्बर तीसरा – मैजारिटी समय चारों ही सब्जेक्ट दिल से नहीं लेकिन दिखावा मात्र करते हैं। याद में भी बैठेंगे – नामीग्रामी बनने के भाव से। ऐसे दिखावा मात्र सेवा भी खूब करेंगे। जैसा समय वैसा अल्पकाल का रूप भी धारण कर लेंगे लेकिन दिमाग तेज़ और दिल खाली। नम्बर चौथा – सिर्फ डर के मारे कोई कुछ कह न दे कि यह तो है ही लास्ट नम्बर का वा यह आगे चल नहीं सकता, ऐसे कोई इस नज़र से नहीं देखे। ब्राह्मण तो बन ही गये और शूद्र जीवन भी छोड़ ही दिया। ऐसा न हो कि दोनों तरफ से छूट जाएं। शूद्र जीवन भी पसन्द नहीं और ब्राह्मण जीवन में विधि पूर्वक चलने की हिम्मत नहीं इसलिए मजबूरी मजधार में आ गये। ऐसे मजबूरी वा डर के मारे चलते ही रहते। ऐसे कभी-कभी अपने श्रेष्ठ जीवन का अनुभव भी करते हैं इसलिए इस जीवन को छोड़ भी नहीं सकते। ऐसे को कहेंगे चौथे नम्बर की पूज्य आत्मा। तो उन्हों की पूजा कभी-कभी और डर के मारे, मजबूरी भक्त बन निभाना है, इसी प्रमाण चलती रहती। और दिखावा वाले की भी पूजा दिल से नहीं लेकिन दिखावा मात्र होती। इसी प्रमाण चलते रहते। तो चार ही प्रकार के पूज्य देखे हैं ना। जैसा अभी स्वयं बनेंगे वैसे ही सतयुग त्रेता की रॉयल फैमिली वा प्रजा उसी नम्बर प्रमाण बनेगी और द्वापर कलियुग में ऐसे ही भक्त माला बनेगी। अभी अपने आप से पूछो मैं कौन! वा चारों में ही कभी कहाँ, कभी कहाँ चक्र लगाते हो। फिर भी भाग्य विधाता के बच्चे बने, पूज्य तो जरूर बनेंगे। नामीग्रामी अर्थात् श्रेष्ठ पूज्य 16 हजार तक नम्बरवार बन जाते हैं। बाकी 9 लाख लास्ट समय तक अर्थात् कलियुग के पिछाड़ी के समय तक थोड़े बहुत पूज्य बन जाते हैं। तो समझा गायन तो सबका होता है। गायन का आधार है भाग्य विधाता बाप का बनना और पूजन का आधार है चारों सब्जेक्ट में पवित्रता, स्वच्छता, सच्चाई, सफाई। ऐसे पर बापदादा भी सदा स्नेह के फूलों से पूजन अर्थात् श्रेष्ठ मानते हैं। परिवार भी श्रेष्ठ मानते हैं और विश्व भी वाह-वाह के नगाड़े बजाए उन्हों की मन से पूजा करेगा। और भक्त तो अपना ईष्ट समझ दिल में समायेंगे। तो ऐसे पूज्य बने हो? जब है ही परमपिता। सिर्फ पिता नहीं है लेकिन परम है तो बनायेंगे भी परम ना! पूज्य बनना बड़ी बात नहीं है लेकिन परम पूज्य बनना है।

बापदादा भी बच्चों को देख हर्षित होते हैं। मुहब्बत में मेहनत को महसूस न कर पहुँच जाते हैं। अभी तो रेस्ट हाउस में आ गये ना! तन-मन दोनों के लिए रेस्ट है ना! रेस्ट माना सोना नहीं। सोना बनने की रेस्ट में आये हैं। पारसपुरी में आ गये हो ना। जहाँ संग ही पारस आत्माओं का है, वायुमण्डल ही सोना बनाने वाला है। बातें ही दिन रात सोना बनने की हैं। अच्छा।

ऐसे सदा परम पूज्य आत्माओं को, सदा विधि द्वारा श्रेष्ठ सिद्धि को पाने वाले, सदा महान बन महान आत्मायें बनाने वाले, स्वयं को सदा सहज और स्वत: योगी, निरन्तर योगी, स्नेह सम्पन्न योगी, अनुभव करने वाले, ऐसी सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को, चारों ओर के आकारी रूपधारी समीप बच्चों को, ऐसे साकारी आकारी सर्व सम्मुख उपस्थित हुए बच्चों को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

दीदी-दादी जी से:- सभी परम पूज्य हो ना! पूजा अच्छी हो रही है ना! बापदादा को तो अनन्य बच्चों पर नाज़ है। बाप को नाज़ है और बच्चों में राज़ हैं। जो राज़युक्त हैं उन बच्चों पर बाप को सदा नाज़ है। राज़युक्त, योगयुक्त, गुण युक्त… सबका बैलेन्स रखने वाले सदा बाप की ब्लैसिंग की छाया में रहने वाले। ब्लैसिंग की सदा ही वर्षा होती रहती है। जन्मते ही यह ब्लैसिंग की वर्षा शुरू हुई है और अन्त तक इसी छत्रछाया के अन्दर गोल्डन फूलों की वर्षा होती रहेगी। इसी छाया के अन्दर चले हैं, पले हैं और अन्त तक चलते रहेंगे। सदा ब्लैसिंग के गोल्डन के फूलों की वर्षा। हर कदम बाप साथ है अर्थात् ब्लैसिंग साथ है। इसी छाया में सदा रहे हो (दादी से) शुरू से अथक हो अथक भव का वरदान है इसलिए करते भी नहीं करते, यह बहुत अच्छा। फिर भी अव्यक्त होते समय जिम्मेवारी का ताज तो डाला है ना। इनको (दीदी को) साकार के साथ-साथ सिखाया और आपको अव्यक्त होने समय सेकेण्ड में सिखाया। दोनों को अपने-अपने तरीके से सिखाया। यह भी ड्रामा का पार्ट है। अच्छा!

विदाई के समय 6.30 बजे सुबह :-

संगमयुग की सब घड़ियाँ गुडमार्निंग ही हैं क्योंकि संगमयुग पूरा ही अमृतवेला है। चक्र के हिसाब से संगमयुग अमृतवेला हुआ ना। तो संगमयुग का हर समय गुडमार्निंग ही है। तो बापदादा आते भी गुडमार्निंग में हैं, जाते भी गुडमार्निंग में हैं क्योंकि बाप आता है तो रात से अमृतवेला बन गया। तो आते भी अमृतवेले में हैं और जब जाते हैं तो दिन निकल आता है लेकिन रहता अमृतवेले में ही है, दिन निकलता तो चला जाता है। और आप लोग सवेरा अर्थात् सतयुग का दिन ब्रह्मा का दिन, उसमें राज्य करते हो। बाप तो न्यारे हो जायेंगे ना। तो पुरानी दुनिया के हिसाब से सदा ही गुडमार्निंग है। सदा ही शुभ है और सदा शुभ रहेगा। इसलिए शुभ सवेरा कहें, शुभ रात्रि कहें शुभ दिन कहें सब शुभ ही शुभ है। तो सभी को कलियुग के हिसाब से गुडमार्निंग और संगमयुग के हिसाब से गुडमार्निंग तो डबल गुडमार्निंग। अच्छा।

प्रश्न:- ब्राह्मण जीवन में मुख्य फाउन्डेशन कौन सा है?

उत्तर:- स्मृति ही ब्राह्मण जीवन में फाउन्डेशन है। स्मृति का सदा अटेन्शन। स्मृति सदा समर्थ रहे तो सदा विजयी हैं। जैसे शरीर के लिए श्वांस फाउन्डेशन है ऐसे ब्राह्मण जीवन के लिए स्मृति फाउन्डेशन है। सदा स्मृति रहे – यह ब्राह्मण जन्म विशेष जन्म है, साधारण नहीं। ऊंचे ते ऊंचे बाप के साथ ऊंचे पार्टधारी हैं। तो ऊंचे पार्टधारी का हर संकल्प, हर बोल विशेष, साधारण नहीं हो सकता।

अध्याय : परम पूज्य बनने का आधार

प्रस्तावना

मधुबन को “महान तीर्थ” कहा जाता है। चारों ओर से आत्माएँ यहाँ मेले में पहुँचती हैं। यह मेला सिर्फ बाहरी नहीं, बल्कि आध्यात्मिक मेले का प्रतीक है।

जैसे-जैसे आत्माएँ श्रेष्ठ कर्म करती हैं, वे चित्रों और गीतों के रूप में अमर हो जाती हैं। आज हम उन्हीं स्मृतियों को पुनः जीवित कर रहे हैं।

श्रेष्ठ संकल्प की पहचान

इस समय आत्मा को अनुभव होता है कि –

“हम ही थे, हम ही हैं और कल्प-कल्प हम ही फिर होंगे।”

यह ‘फिर से’ की स्मृति और ज्ञान केवल ब्राह्मण आत्माओं को ही है।

5000 वर्षों का इतिहास एक पल में स्पष्ट हो जाता है।

उदाहरणजैसे कोई पुरानी तस्वीर देखकर हमें याद आता है – हाँ, यह तो मैं ही था!

वैसे ही मेला स्थल पर अपने चैतन्य श्रेष्ठ जीवन का साक्षात्कार होता है।

चार प्रकार की पूज्य आत्माएँ

1. नम्बरवन पूज्य आत्मा

सहज स्नेह से, विधि पूर्वक याद और सेवा करती हैं।

चारों सब्जेक्ट (ज्ञान, योग, सेवा, धारणा) में सिद्धि प्राप्त करती हैं।

लवलीन अवस्था में रहती हैं।

2. नियम पूर्वक पूज्य आत्मा

प्रेम से नहीं, बल्कि नियम समझकर चलते हैं।

कभी सहज लगता है, कभी मेहनत।

लव में रहते हैं, परन्तु लवलीन नहीं।

3. दिखावा करने वाली पूज्य आत्मा

चारों सब्जेक्ट का पालन दिल से नहीं, दिखावे के लिए करती हैं।

याद में भी नामीग्रामी बनने का भाव रखते हैं।

दिमाग तेज़ – दिल खाली।

4. डर और मजबूरी से पूज्य आत्मा

दोनों तरफ से छूट न जाएँ, इसलिए चलते रहते हैं।

श्रेष्ठ जीवन छोड़ भी नहीं सकते और पूरी तरह निभा भी नहीं सकते।

मजबूरी भक्त कहलाते हैं।

पूजा के दो प्रकार

प्रेम की विधि पूर्वक पूजा – दिल से, आत्मा की लगन से।

नियम पूर्वक पूजा – डर, दिखावा या फर्ज समझकर।

ब्राह्मण जीवन में भी यही भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं।

परम पूज्य बनने का रहस्य

सिर्फ “पूज्य” बनना बड़ी बात नहीं है, बल्कि “परम पूज्य” बनना ही सच्चा लक्ष्य है।

परम पूज्य वही आत्माएँ बनती हैं, जो चारों सब्जेक्ट में पवित्रता, स्वच्छता, सच्चाई, सफाई से पूर्ण होती हैं।

बापदादा भी ऐसे बच्चों पर सदा स्नेह के फूलों से पूजन करते हैं।

स्मृति – ब्राह्मण जीवन का फाउन्डेशन

प्रश्न: ब्राह्मण जीवन में मुख्य फाउन्डेशन कौन सा है?उत्तर: स्मृति।

जैसे शरीर के लिए श्वांस आवश्यक है, वैसे ही ब्राह्मण जीवन के लिए स्मृति।

स्मृति सदा समर्थ रहे तो सदा विजय निश्चित है।

मुरली नोट्स (30 अप्रैल 1983)

स्मृति ही फाउन्डेशन है।

चार प्रकार की पूज्य आत्माएँ – लवलीन, लव, दिखावा, मजबूरी।

पूजा दो प्रकार की – दिल से और नियम से।

परम पूज्य वही, जो चारों सब्जेक्ट में पूर्ण।

संगमयुग का हर समय गुड मॉर्निंग है।

बापदादा की विशेष दृष्टि – स्मृति, योग और प्रेम पर।

अनुभव और वरदान

“सोना बनने की रेस्ट” – पारसपुरी का वायुमंडल आत्मा को सोना बना देता है।

ब्लेसिंग की छाया – जन्म से लेकर अन्त तक गोल्डन फूलों की वर्षा बनी रहती है।

वरदान: अथक भव – सेवा करते भी नहीं और करते भी हो।

प्रस्तावना

प्रश्न 1: मधुबन को “महान तीर्थ” क्यों कहा गया है?
उत्तर: क्योंकि यहाँ चारों ओर से आत्माएँ मिलन के मेले में आती हैं। यह मेला केवल बाहरी नहीं, बल्कि आत्माओं का आध्यात्मिक मेला है। यहाँ किए गए श्रेष्ठ कर्म आत्माओं को चित्र और गीतों में अमर बना देते हैं।

प्रश्न 2: श्रेष्ठ आत्माओं का अमरत्व किस रूप में दिखाई देता है?
उत्तर: उनके श्रेष्ठ कर्म चित्रों, गीतों और यादगार चरित्रों के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी बने रहते हैं।


 श्रेष्ठ संकल्प की पहचान

प्रश्न 3: ब्राह्मण आत्मा का विशेष संकल्प कौन-सा है?
उत्तर: “हम ही थे, हम ही हैं और कल्प-कल्प हम ही फिर होंगे।” यह ‘फिर से’ की स्मृति केवल ब्राह्मण आत्माओं को ही है।

प्रश्न 4: 5000 वर्षों का इतिहास ब्राह्मण आत्मा को कैसे अनुभव होता है?
उत्तर: जैसे कोई पुरानी तस्वीर देखकर तुरंत पहचान हो जाती है – हाँ, यह तो मैं ही था! वैसे ही ब्राह्मण आत्मा को 5000 वर्षों का इतिहास एक क्षण में स्पष्ट अनुभव होता है।


 चार प्रकार की पूज्य आत्माएँ

प्रश्न 5: नम्बरवन पूज्य आत्माओं की विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:

  • सहज स्नेह से, विधि पूर्वक याद और सेवा करना।

  • चारों सब्जेक्ट (ज्ञान, योग, सेवा, धारणा) में सिद्धि प्राप्त करना।

  • हमेशा लवलीन अवस्था में रहना।

प्रश्न 6: नियम पूर्वक पूज्य आत्माएँ कैसे चलती हैं?
उत्तर: ये आत्माएँ प्रेम से नहीं, बल्कि नियम और कायदे से चलती हैं। कभी सहज लगता है, कभी मेहनत करनी पड़ती है। ये आत्माएँ लव में रहती हैं, पर लवलीन नहीं होतीं।

प्रश्न 7: दिखावा करने वाली आत्माओं की पहचान क्या है?
उत्तर:

  • चारों सब्जेक्ट का पालन दिखावे के लिए करती हैं।

  • याद में बैठती हैं तो नामी–ग्रामी बनने की भावना से।

  • दिमाग तेज़ लेकिन दिल खाली रहता है।

प्रश्न 8: डर और मजबूरी से चलने वाली आत्माएँ कैसी होती हैं?
उत्तर:

  • वे श्रेष्ठ जीवन छोड़ भी नहीं सकतीं और पूरी तरह निभा भी नहीं सकतीं।

  • दोनों तरफ से छूट न जाएँ, इस डर से चलती रहती हैं।

  • इन्हें मजबूरी भक्त कहा जाता है।


 पूजा के दो प्रकार

प्रश्न 9: पूजा के दो प्रकार कौन से हैं?
उत्तर:

  1. प्रेम की विधि पूर्वक पूजा – दिल से, आत्मिक लगन से।

  2. नियम पूर्वक पूजा – डर, दिखावा या फर्ज समझकर।

प्रश्न 10: ब्राह्मण जीवन में इन दोनों प्रकार की पूजा का क्या संबंध है?
उत्तर: जैसे भक्तों में पूजा के भेद हैं, वैसे ही ब्राह्मण जीवन में भी आत्माओं की स्थिति भिन्न-भिन्न होती है – कोई सहज प्रेम से चलते हैं, कोई नियम या दिखावे से।


 परम पूज्य बनने का रहस्य

प्रश्न 11: सिर्फ “पूज्य” और “परम पूज्य” बनने में क्या फर्क है?
उत्तर: पूज्य बनना तो सबका होता है, लेकिन परम पूज्य वही बनते हैं जो चारों सब्जेक्ट में – पवित्रता, स्वच्छता, सच्चाई और सफाई – से पूर्ण होते हैं।

प्रश्न 12: परम पूज्य आत्माओं को बापदादा कैसे देखते हैं?
उत्तर: बापदादा ऐसे बच्चों पर सदा स्नेह के फूलों से पूजन करते हैं और उन्हें श्रेष्ठ मानते हैं।


 स्मृति – ब्राह्मण जीवन का फाउन्डेशन

प्रश्न 13: ब्राह्मण जीवन का मुख्य फाउन्डेशन क्या है?
उत्तर: स्मृति।

प्रश्न 14: स्मृति का महत्व शरीर की श्वास से कैसे तुलना किया गया है?
उत्तर: जैसे शरीर श्वास बिना जीवित नहीं रह सकता, वैसे ही ब्राह्मण जीवन स्मृति के बिना टिक नहीं सकता। स्मृति रहे तो सदा विजय सुनिश्चित है।


 अनुभव और वरदान

प्रश्न 15: “सोना बनने की रेस्ट” का क्या अर्थ है?
उत्तर: पारसपुरी का वायुमंडल आत्माओं को सोना बना देता है। यहाँ की बातें, वातावरण और संग ही आत्मा को स्वर्णिम बना देते हैं।

प्रश्न 16: ब्राह्मण आत्माओं पर कैसी छाया बनी रहती है?
उत्तर: जन्म से लेकर अन्त तक ब्लेसिंग की छाया बनी रहती है, जिसमें गोल्डन फूलों की वर्षा होती रहती है।

प्रश्न 17: इस मुरली का वरदान क्या है?
उत्तर: अथक भव – अर्थात सेवा करते भी नहीं और करते भी हो। सहजता से सेवा करने वाला।

Disclaimer

यह वीडियो/लेख ब्रह्माकुमारीज़ की अव्यक्त मुरली (30 अप्रैल 1983) पर आधारित आध्यात्मिक चिंतन है।
इसका उद्देश्य केवल आध्यात्मिक शिक्षा और आत्मिक जागृति है, किसी प्रकार का अंधविश्वास या आलोचना करना नहीं।

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