Avyakta Murli”18-09-1969

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Short Questions & Answers Are given below (लघु प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

“त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी और त्रिलोकीनाथ बनने की युक्तियाँ”

किसको देखते हो? आकार को देखते वा अव्यक्त को देखते हो? अगर अपनी वा औरों की आकृति को न देख अव्यक्त को देखेंगे तो आकर्षण मूर्त बनेंगे। अगर आकृति को देखते तो आकर्षण मूर्त नहीं बनते हो। आकर्षण मूर्त बनना है तो आकृति को मत देखो। आकृति के अन्दर जो आकर्षण रूप है उसको देखने से ही अपने से और औरों से आकर्षण होगा। तो अब के समय यही अव्यक्त सर्विस रही हुई है। व्यक्त में क्यों आ जाते हो? इसका कारण क्या है? अव्यक्त बनना अच्छा भी लगता फिर भी व्यक्त में क्यों आते हो? व्यक्त में आने से ही व्यर्थ संकल्प आते हैं और व्यर्थ कर्म होते हैं तो व्यक्त से अव्यक्त बनने में मुश्किल क्यों लगती है? व्यक्त में जल्दी आ जाते हैं अव्यक्त में मुश्किल से टिकते हैं। इसका कारण क्या है? भूल जाते हैं। भूलते भी क्यों है? देह अभिमान क्यों आ जाता है? मालूम भी है, जानते भी हो, अनुभव भी किया है, कि व्यक्त में और अव्यक्त में अन्तर क्या है? नुकसान और फायदा क्या है? यह भी सब मालूम है। जब तुम याद में बैठते हो तो देह-अभिमान से देही-अभिमानी में कैसे स्थित होते हो? क्या कहते हो? बात तो बड़ी सहज है। जो आप सबने बताया वो भी पुरुषार्थ का ही है। लेकिन जानते और मानते हुए भी देह अभिमान में आने का कारण यही है जो देह का आकर्षण रहता है। इस आकर्षण से दूर हटने के लिए कोशिश करनी है। जैसे कोई खींचने वाली चीज होती है तो उस खिंचाव से दूर रखने के लिए क्या किया जाता है? चुम्बक होता है तो ना चाहते हुए भी उस तरफ खिंच आते हैं। अगर आपको उस आकर्षण से किसी को दूर करना है तो क्या करेंगे? कोई चीज ना चाहते हुए भी उसको खैचती है और आपको उस चीज से दूर उसे करना है तो क्या करेंगे? या तो उनको दूर ले जायेंगे या तो बीच में ऐसी चीज रखेंगे जो वो आकर्षण न कर सके। यह दो तरह से होता है या तो दूर कर देना है या दोनों के बीच में ऐसी चीज डाल देंगे तो वो दूर हो जाते इसी प्रकार यह देह अभिमान या यह व्यक्त भाव जो है यह भी चुम्बक के माफिक ना चाहते हुए भी फिर उसमें आ जाते है। बीच में क्या रखेंगे? स्वयं को जानने के लिए क्या आवश्यकता है जिससे स्वयं को और सर्वशक्तिमान बाप को पूर्ण रीति जान सकते हो? एक ही शब्द है। स्वयं को और सर्वशक्तिमान बाप को पूर्ण रीति जानने के लिए संयम चाहिये। जब संयम को भूलते हो तो स्वयं को भी भूलते और सर्वशक्तिमान को भी भूलते हैं। अलबेलेपन का संस्कार भी क्यों आता है? कोई न कोई संयम को भूलते हो। तो संयम जो है वो स्वयं को और सर्वशक्तिमान बाप को समीप लाता है। अगर संयम में कमी है तो स्वयं और सर्वशक्तिमान से मिलन में कमी है। तो बीच की जो बात है वह संयम है। कोई ना कोई संयम जब छोड़ते हो तो यह याद भी छूटती है। अगर संयम ठीक है तो स्वयं की स्थिति ठीक है और स्वयं की स्थिति ठीक है तो सब बातें ठीक है। तो यह देह की जो आकर्षण है वो बार-बार अपनी तरफ आकर्षित करती है। अगर बीच में यह संयम (नियम) रख दो तो यह देह की आकर्षण आकर्षित नहीं करेगी। इसके लिये तीन बातें ध्यान में रखो। एक स्वयं की याद। एक संयम और समय। यह तीन बातें याद रखेंगे तो क्या बन जायेंगे? त्रिनेत्री त्रिकालदर्शी-त्रिलोकीनाथ। संगमयुग का जो आप सबका टाइटिल है वो सब प्राप्त हो जावेगा। स्वयं को जानने से सर्वशक्तिमान बीच में आ ही जाता है। तो इन तीनों बातों तरफ ध्यान दो। कोई भी चित्र को देखते हो (चित्र अर्थात् शरीर) तो चित्र को नहीं देखो। लेकिन चित्र के अन्दर जो चेतन है उसको देखो। और उस चित्र के जो चरित्र हैं उन चरित्रों को देखो। चेतन और चरित्र को देखेंगे तो चरित्र तरफ ध्यान जाने से तो चित्र अर्थात् देह के भान से दूर हो जायेंगे। एकएक में कोई ना कोई चरित्र जरूर है। क्योंकि ब्राह्मण कुल भूषण ही चरित्रवान है। सिर्फ एक बाप का ही चरित्र नहीं है। लेकिन बाप के साथ जो भी मददगार है उनकी भी हर एक चलन चरित्र है। तो चरित्र को देखो और चेतन वा विचित्र को। तो यह कहें विचित्र और चरित्र। अगर यह दो बातें देखो तो देह की आकर्षण जो ना चाहते हुये भी खींच लेती है वो दूर हो जायेगी। वर्तमान समय यही मुख्य पुरुषार्थ होना चाहिए। जबकि आप लोग कहते ही हो कि हम बदल चुके हैं। तो फिर यह सब बातें ही बदल जानी चाहिए फिर पुराने संस्कार और यह पुरानी बातें क्यों? अपने को बदलने लिए पहले यह जो भाव है, उस भाव को बदलने से सब बातें बदल जायेगी।

आसक्ति में आ जाते हैं ना। तो आसक्ति के बजाय अगर अपने को शक्ति समझो तो आसक्ति समाप्त हो जायेगी। शक्ति न समझने से अनेक प्रकार की आसक्तियां आती हैं।

कोई भी आसक्ति चाहे देह की, चाहे तो देह के पदार्थों की कोई भी आसक्ति उत्पन्न हो तो उस समय यही याद रखो कि मैं शक्ति हूँ। शक्ति में फिर आसक्ति कहाँ? आसक्ति के कारण उस स्थिति में आ नहीं सकते हैं। तो आसक्ति को खत्म कर दो। इसके लिए यही सोचो कि मैं शक्ति हूँ माताओं को विशेष कौनसा विघ्न आता है? (मोह) मोह किस कारण आता है? मोह मेरा से होता है। लेकिन आप सबका वायदा क्या है? शुरू-शुरू में आप सब-जब आये तो आपका वायदा क्या था? मैं तेरी तो सब कुछ तेरा। पहला वायदा ही यह है। मैं भी तेरी और मेरा सब कुछ भी तेरा। सो फिर भी मेरा कहाँ से आया? तेरे को मेरे से मिला देते हो। इससे क्या सिद्ध हुआ कि पहला वायदा ही भूल जाते हो। पहला-पहला वायदा ही सब यह कहते हैं :- जो कहोगे, वो करेंगे, जो खिलायेंगे, जहाँ बिठायेंगे। यह जो वायदा है, वह वायदा याद है? तो बाप तुमको अव्यक्त वतन में बिठाते हैं। तो आप फिर व्यक्त वतन में क्यों आ जाते हो? वायदा तो ठीक नहीं निभाया। वायदा है जहाँ बिठायेंगे वहाँ बैठेंगे। बाप ने तो कहा नहीं है कि व्यक्त वतन में बैठो। व्यक्त में होते अव्यक्त में रहो। पहला-पहला पाठ ही भूल जायेंगे तो फिर ट्रेनिंग क्या करेंगे। ट्रेनिंग में पहला पाठ तो पक्का करवाओ। यह याद रखो कि जो वायदा किया है उसको निभाकर दिखायेंगे। जो मातायें ट्रेनिंग में आई हुई हैं, आप सब सरेण्डर हो? जब सरेण्डर हो चुके हो तो फिर मोह कहाँ से आया। जब कोई जलकर खत्म हो जाता है तो फिर उसमें कुछ रहता है? कुछ भी नहीं। अगर कुछ है तो इसका मतलब कि तीर लगा है लेकिन पूरे जले नहीं है। मरे हैं, जले नहीं हैं। रावण को भी पहले मारते हैं फिर जलाते हैं। तो मरजीवा बने हो परन्तु जलकर एकदम खाक बन जाए, वो नहीं बने हैं। सरेण्डर का अर्थ तो बड़ा है। मेरा कुछ रहा ही नहीं। सरेण्डर हुआ तो तन-मन-धन सब कुछ अर्पण। जब मन अर्पण कर दिया तो उस मन में अपने अनुसार संकल्प उठा ही कैसे सकते हैं? तन से विकर्म कर ही कैसे सकते हैं? और धन को भी विकल्प अथवा व्यर्थ कार्यों में लगा ही कैसे सकते हो? इससे सिद्ध है कि देकर फिर वापिस ले लेते हैं। जबकि तन, मन, धन दे दिया है तो मन में क्या चलाना है वो भी श्रीमत मिलती है, तन से क्या करना है, वो भी मत मिलती है, धन से क्या करना है सो भी मालूम है। जिनको दिया उनकी मत पर ही तो चलना होगा। जिसने मन दे दिया उसकी अवस्था क्या होगी? मनमनाभव। उसका मन वहाँ ही लगा रहेगा। इस मंत्र को कभी भूलेंगे नहीं। जो मनमनाभव होगा उसमें मोह हो सकता है? तो मोहजीत बनने के लिए अपने वायदे याद करो। यहाँ ट्रेनिंग से जब निकलेंगे तो आप कौन सा ठप्पा लगवा कर निकलेंगे? (मोहजीत का) अगर मोहजीत का ठप्पा लग जायेगा तो सीधी पोस्ट ठिकाने पर पहुँचेगी। और सीधा ठप्पा नहीं होगा तो पोस्ट ठिकाने पर नहीं पहुँचेगी। इसलिए ही ठप्पा जरूर लगाना है। इन माताओं का ही फिर समर्पित समारोह करेंगे। उसमें बुलायेंगे भी उनको जिन्होंने ठप्पा लगाया होगा। मोहजीत वालों का ही सम्मेलन करेंगे। इसलिये जल्दी-जल्दी तैयार हो जाओ।

त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी और त्रिलोकीनाथ बनने की युक्तियाँ

प्रश्न-उत्तर

  1. प्रश्न: त्रिनेत्री बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है?
    उत्तर: स्वयं की याद, संयम और समय का पालन त्रिनेत्री बनने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
  2. प्रश्न: अव्यक्त बनने में सबसे बड़ा विघ्न क्या है?
    उत्तर: देह-अभिमान और देह का आकर्षण, जो मन को व्यक्त स्थिति में खींच लेता है।
  3. प्रश्न: देह-अभिमान से बचने का उपाय क्या है?
    उत्तर: देह की आकृति को न देखकर, उसके अंदर की चेतनता और चरित्र पर ध्यान देना।
  4. प्रश्न: मोहजीत बनने के लिए क्या अभ्यास करना चाहिए?
    उत्तर: “मैं शक्ति हूँ” का स्मरण और “मैं तेरी तो सब कुछ तेरा” के वायदे को निभाना।
  5. प्रश्न: संयम का महत्व क्या है?
    उत्तर: संयम स्वयं और सर्वशक्तिमान से निकटता लाता है, जो आत्मा को स्थिर बनाता है।
  6. प्रश्न: अव्यक्त सेवा का मुख्य आधार क्या है?
    उत्तर: व्यक्त स्थिति में न आकर, अव्यक्त चेतना में टिके रहना।
  7. प्रश्न: “मनमनाभव” का क्या अर्थ है?
    उत्तर: अपने मन को सर्वशक्तिमान के साथ जोड़कर स्थिर रखना।
  8. प्रश्न: मोह को समाप्त करने का मुख्य उपाय क्या है?
    उत्तर: अपने पहले वायदे “संपूर्ण समर्पण” को याद करके उसे निभाना।
  9. प्रश्न: ब्राह्मण कुल का सबसे बड़ा गुण क्या है?
    उत्तर: चरित्रवान और विचित्रता (विशिष्टता) से युक्त होना।

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