गरुड़ पुराण/ब्रह्मकुमारी ज्ञान(14)जीव की गर्भावस्था का दुःख और वैष्णवी माया
( प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
वैष्णवी माया का प्रभावगर्भ में जीव की अवस्था
जब जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है, तो वह अत्यंत कष्ट का अनुभव करता है। माता-पिता के संयोग से गर्भधारण होता है और प्रारंभ में वह सूक्ष्म रूप में रहता है। धीरे-धीरे उसका शरीर विकसित होने लगता है:
- एक महीने में सिर का निर्माण
- दो महीनों में बाहु और अन्य अंगों का विकास
- तीन महीनों में नख, त्वचा, हड्डियाँ और लिंग पहचानने योग्य छिद्र उत्पन्न होते हैं
- चौथे महीने में शरीर की धातुएँ बनती हैं
- पाँचवें महीने में भूख-प्यास की अनुभूति होती है
- छठे महीने में वह माता के गर्भ में जरायु से लिपटा हुआ घूमता है
- गर्भ में स्थित जीव को अत्यधिक कष्ट सहना पड़ता है। माता के द्वारा खाए गए विभिन्न स्वादों से उसे पीड़ा होती है। कृमि उसके कोमल अंगों को बार-बार काटते है जिससे वह मूर्छित हो जाता है।
गर्भ में जीव की प्रार्थना
अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का स्मरण होते ही जीव भगवान से प्रार्थना करता है:
“हे प्रभु! यदि मैं गर्भ से बाहर निकलूँ, तो मैं कोई पापकर्म नहीं करूँगा और मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करूँगा।”
वैष्णवी माया का प्रभाव
किन्तु जैसे ही जीव जन्म लेता है, वैष्णवी माया उसे अपने प्रभाव में ले लेती है। जन्म के समय उसे अत्यंत पीड़ा होती है, किंतु शीघ्र ही वह संसार में रम जाता है और अपनी गर्भावस्था की प्रतिज्ञाओं को भूल जाता है।
शैशवावस्था और सांसारिक मोह
- शैशवावस्था में जीव पूर्णतः दूसरों पर निर्भर रहता है और अनेक शारीरिक कष्ट भोगताहै।
- युवावस्था में सांसारिक आकर्षणों में उलझ जाता है, नीच संगति में पड़ता है और दुर्व्यसनों का शिकार हो जाता है।
- स्त्रियों और अन्य भौतिक सुखों के आकर्षण में फँसकर उसकी इंद्रियाँ वश में नहीं रहतीं, और वह मोह के गहरे अंधकार में गिर जाता है।
जन्म-मरण के चक्र में फँसना
इस प्रकार, जीव पुनः संसार के चक्र में फँस जाता है और अपनी वास्तविक स्थिति को भूल जाता है। जो व्यक्ति गर्भावस्था, रोग, मृत्यु और सांसारिक दुखों की सच्चाई को समझता है और यदि वह स्थिर बुद्धि होकर भगवान का स्मरण करता है, तो वह मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकता है।
परंतु यदि वह वैष्णवी माया के प्रभाव में आकर भौतिक सुखों में उलझा रहता है, तो वह पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाता है। इसलिए, हमें सदैव भगवान का स्मरण करते हुए अपने जीवन को सत्कर्मों में लगाना चाहिए, जिससे हम इस मोह और दुख के चक्र से मुक्त हो सकें।
📚 प्रश्नोत्तर श्रृंखला
जीव की गर्भावस्था का दुःख और वैष्णवी माया
प्रश्न 1: जीव की गर्भ में प्रवेश की प्रक्रिया कैसी होती है?
उत्तर: माता-पिता के संयोग से जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है और प्रारंभ में सूक्ष्म रूप में रहता है। धीरे-धीरे उसका शरीर विकसित होता है, जैसे सिर, हाथ-पैर, त्वचा, नख, हड्डियाँ आदि बनते हैं।
प्रश्न 2: गर्भ में जीव को किस प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं?
उत्तर: गर्भ में जीव को अत्यंत कष्ट सहने पड़ते हैं। कृमि उसके कोमल अंगों को काटते हैं, माता के द्वारा खाए गए विभिन्न स्वादों से उसे पीड़ा होती है, और वह मूर्छित तक हो जाता है।
प्रश्न 3: गर्भ में जीव कौन-सी प्रार्थना करता है?
उत्तर: जीव गर्भ में भगवान से प्रार्थना करता है – “हे प्रभु! यदि मैं गर्भ से बाहर निकलूँ, तो कभी पाप नहीं करूँगा और मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करूँगा।”
प्रश्न 4: वैष्णवी माया जीव पर कब प्रभाव डालती है?
उत्तर: जैसे ही जीव जन्म लेता है, वैष्णवी माया तुरंत उसे अपने प्रभाव में ले लेती है, जिससे वह जन्म के समय का कष्ट और अपनी पूर्व की प्रतिज्ञाएँ भूल जाता है।
प्रश्न 5: जन्म के बाद जीव किस प्रकार संसार में उलझता है?
उत्तर: जन्म के बाद,
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शैशवावस्था में वह दूसरों पर निर्भर होकर कष्ट भोगता है।
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युवावस्था में सांसारिक आकर्षण, बुरी संगति और भोग-विलास में फँस जाता है।
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इंद्रियाँ वश में नहीं रहतीं और वह मोह में डूब जाता है।
प्रश्न 6: जीव पुनः जन्म-मरण के चक्र में कैसे फँसता है?
उत्तर: वैष्णवी माया के प्रभाव से जब जीव मोह, भोग और पापकर्मों में उलझ जाता है, तो वह पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाता है और इस चक्र से छूट नहीं पाता।
प्रश्न 7: इस संसार के बंधन से मुक्त होने का उपाय क्या है?
उत्तर: यदि जीव गर्भावस्था, रोग, मृत्यु और संसार के दुखों की सच्चाई को समझकर भगवान का स्मरण करता है और सत्कर्मों में लग जाता है, तो वह वैष्णवी माया से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
प्रश्न 8: इस कथा से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर: हमें यह सीख मिलती है कि संसार असार है। यदि हम भगवान का स्मरण और सत्कर्म करें तो वैष्णवी माया के प्रभाव से मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा सकते हैं।
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