(45) “The Confluence Age – The Age of the Meeting of the Father and the Children”

YouTube player

(प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

अव्यक्त मुरली-(45)”संगमयुग – बाप बच्चों के मिलन का युग”

05-12-1983 “संगमयुग – बाप बच्चों के मिलन का युग”

आज सभी मिलन मेला मनाने के लिए पहुँच गये हैं। यह है ही बाप और बच्चों के मधुर मिलन का मेला। जिस मिलन मेले के लिए अनेक आत्मायें, अनेक प्रकार के प्रयत्न करते हुए भी बेअन्त, असम्भव वा मुश्किल कहते इंतजार में ही रह गये हैं। कब हो जायेगा – इसी उम्मीदों पर चलते चले और अब भी चल रहे हैं। ऐसी भी अन्य आत्मायें हैं, जो कब होगा, कब आयेंगे, कब मिलेंगे ऐसे वियोग के गीत गाते रहते हैं। वो सभी हैं – कब कहने वाले और आप सब हैं – अभी वाले। वो वियोगी और आप सहज योगी। सेकण्ड में मिलन का अनुभव करने वाले। अभी भी कोई आपसे पूछे कि बाप से मिलना कब और कितने समय में हो सकता है, तो क्या कहेंगे? निश्चय और उमंग से यही कहेंगे कि बाप से मिलना बच्चे के लिए कभी मुश्किल हो नहीं सकता। सहज और सदा का मिलना है। संगमयुग है ही बाप बच्चों के मिलन का युग। निरन्तर मिलन में रहते हो ना। है ही मेला। मेला अर्थात् मिलाप। तो बड़े फ़खुर से कहेंगे आप लोग मिलना कहते हो, लेकिन हम तो सदा उन्हीं के साथ अर्थात् बाप के साथ खाते-पीते, चलते, खेलते, पलते रहते हैं। इतना फ़खुर रहता है? वह पूछते परमात्मा बाप से स्नेह कैसे होता है, मन कैसे लगता! और आपके दिल से यही आवाज निकलता कि मन कैसे लगाना तो छोड़ो लेकिन मन ही उनका हो गया। आपका मन है क्या, जो मन कैसे लगावें। मन बाप को दे दिया तो किसका हुआ! आपका या बाप का? जब मन ही बाप का है तो फिर लगावें कैसे, यह प्रश्न उठ नहीं सकता। प्यार कैसे करते, यह भी क्वेश्चन नहीं क्योंकि सदा लवलीन ही रहते हैं। प्यार स्वरुप बन गये हैं। मास्टर प्यार के सागर बन गये, तो प्यार करना नहीं पड़ता, प्यार का स्वरुप हो गये हैं। सारा दिन क्या अनुभव करते, प्यार की लहरें स्वत: ही उछलती हैं ना। जितना-जितना ज्ञान सूर्य की किरणें वा प्रकाश बढ़ता है उतना ही ज्यादा प्यार की लहरें उछलती हैं। अमृतवेले ज्ञान सूर्य की ज्ञान मुरली क्या काम करती? खूब लहरें उछलती हैं ना। सब अनुभवी हो ना! कैसे ज्ञान की लहरें, प्रेम की लहरें, सुख की लहरें, शान्ति और शक्ति की लहरें उछलती हैं और उन ही लहरों में समा जाते हो। यही अलौकिक वर्सा प्राप्त कर लिया है ना! यही ब्राह्मण जीवन है। लहरों में समात-समाते सागर समान बन जायेंगे। ऐसा मेला मनाते रहते हो वा अभी मनाने आये हो? ब्राह्मण बनकर अगर सागर में समाने का अनुभव नहीं किया, तो ब्राह्मण जीवन की विशेषता क्या रही! इस विशेषता को ही वर्से की प्राप्ति कहा जाता है। सारे विश्व के ब्राह्मण इसी अलौकिक प्राप्ति के अनुभव के चात्रक हैं।

अभी भी सर्व चात्रक बच्चे बापदादा के समाने हैं। बापदादा के आगे बेहद का हॉल है। इस हॉल मे भी सभी नहीं आ सकते। सभी बच्चे दूरबीन लेकर बैठे हैं। साकार में भी दूर का दृश्य सामने देखने के अनुभव में बापदादा भी बच्चों के सहज, श्रेष्ठ सर्व प्राप्ति को देख हर्षित होते हैं। आप सभी भी इतने हर्षित होते हो या कभी हर्षित और कभी माया के आकर्षित? माया की दुविधा में तो नहीं रहते हो! दुविधा दलदल बना देती है। अभी तो दलदल से निकल, दिलतख्तनशीन हो गये हो ना! सोचो, कहाँ दलदल और कहाँ दिलतख्त! क्या पसन्द है? चिल्लाना या तख्त पर चढ़कर बैठना? पसन्द तो तख्त है फिर दलदल की ओर क्या चले जाते हो। दलदल के समीप जाने से दूर से ही दलदल अपने तरफ खींच लेती है।

नया समझ करके आये हो या कल्प-कल्प के अधिकारी समझ आये हो? नये आये हो ना! परिचय के लिए नया कहा जाता है लेकिन पहचानने में तो नये नहीं हो ना। नये बन पहचानने के लिए तो नहीं आये हो ना। पहचान का तीसरा नेत्र प्राप्त हो गया है वा अभी प्राप्त करने आये हो?

सभी आये हुए बच्चों को, ब्राह्मण जन्म की सौगात बर्थ-डे पर मिली वा यहाँ बर्थ-डे मनाने आये हो। बर्थ-डे की गिफ्ट बाप द्वारा तीसरा नेत्र मिलता है। बाप को पहचानने का नेत्र मिलता है। जन्म लेते, नेत्र मिलते सबके मुख से पहला बोल क्या निकला? बाबा। पहचाना तब तो बाबा कहा ना! सभी को बर्थ-डे की गिफ्ट मिली है वा किसकी रह गई है! सबको मिली है ना? गिफ्ट को सदा सम्भाल कर रखा जाता है, बापदादा को तो सभी बच्चे एक दो से प्यारे हैं। अच्छा।

ऐसे सर्व अधिकारी आत्माओं को, सदा सागर के भिन्न-भिन्न लहरों में लहराने वाले अनुभवी मूर्त बच्चों को, सदा दिलतख्तनशीन बच्चों को, सदा मिलन मेला मनाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, साथ-साथ देश वा विदेश के दूरबीन लिए हुए बच्चों को, विश्व के अनजान बच्चों को भी बापदादा याद-प्यार दे रहे हैं। सर्व आत्माओं को यथा स्नेह तथा स्नेह सम्पन्न याद-प्यार और वारिसों को नमस्ते।

दादी जी से:- बाप के संग का रंग लगा है। समान बाप बन गई! आप में सदा क्या दिखाई देता है? बाप दिखाई देता है। तो संग लग गया ना। कोई भी आपको देखता है तो बाप की याद आती क्योंकि समाये हुए हो। समाये हुए समान हो गये, इसलिए विशेष स्नेह और सहयोग की छत्रछाया है। स्पेशल पार्ट है और स्पेशल छत्रछाया खास वतन में बनाई हुई है तब ही सदा हल्की हो। कभी बोझ लगता है? छत्रछाया के अन्दर हो ना। बहुत अच्छा चल रहा है। बापदादा देख-देख हर्षित होते हैं।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की व्यक्तिगत मुलाकात :-

सारे विश्व में विशेष आत्मायें हैं, यह स्मृति सदा रहती है? विशेष आत्माएं सेकण्ड भी एक संकल्प, एक बोल भी साधारण नहीं कर सकती। तो यही स्मृति सदा समर्थ बनाने वाली है। समर्थ आत्मायें हैं, विशेष आत्मायें हैं, यह नशा और खुशी सदा रहे। समर्थ माना व्यर्थ को समाप्त करने वाले। जैसे सूर्य अन्धकार और गन्दगी को समाप्त कर देता है। ऐसे समर्थ आत्मायें व्यर्थ को समाप्त कर देती हैं। व्यर्थ का खाता खत्म, श्रेष्ठ संकल्प, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ बोल, सम्पर्क और सम्बन्ध का खाता सदा बढ़ता रहे। ऐसा अनुभव है! हम हैं ही समर्थ आत्मायें, यह स्मृति आते ही व्यर्थ खत्म हो जाता। विस्मृति हुई तो व्यर्थ शुरु हो जायेगा। स्मृति स्थिति को स्वत: बनाती हैं। तो स्मृति स्वरुप हो जाओ। स्वरुप कभी भी भूलता नहीं। आपका स्वरुप है स्मृति स्वरुप सो समर्थ स्वरुप। बस यही अभ्यास और यही लगन। इसी लगन में सदा मगन – यही जीवन है।

कभी भी किसी परिस्थिति में, वायुमण्डल में उमग-उत्साह कम होने वाला नहीं। सदा आगे बढ़ने वाले क्योंकि संगमयुग है ही उमंग-उत्साह प्राप्त कराने वाला। यदि संगम पर उमंग-उत्साह नहीं होता तो सारे कल्प में नहीं हो सकता। अब नहीं तो कब नहीं। ब्राह्मण जीवन ही उमंग-उत्साह की जीवन है। जो मिला है वह सबको बांटे, यह उमंग रहे। और उत्साह सदा खुशी की निशानी है। उत्साह वाला सदा खुश रहेगा। उत्साह रहता बस पाना था वो पा लिया।

सदा अचल-अडोल स्थिति में रहने वाली अंगद के समान श्रेष्ठ आत्मायें हैं, इसी नशे और खुशी में रहो क्योंकि सदा एक के रस में रहने वाले, एकरस स्थिति में रहने वाले सदा अचल रहते हैं। जहाँ एक होगा वहाँ कोई खिटखिट नहीं। दो होता तो दुविधा होती। एक में सदा न्यारे और प्यारे। एक के बजाए दूसरा कहाँ भी बुद्धि न जाये। जब एक में सब कुछ प्राप्त हो सकता है तो दूसरे तरफ जाएं ही क्यों! कितना सहज मार्ग मिल गया। एक ही ठिकाना, एक से ही सर्व प्राप्ति और चाहिए ही क्या! सब मिल गया बस, जो चाहना थी, बाप को पाने की वो प्राप्त हो गया, तो इसी खुशी में नाचते रहो, खुशी के गीत गाते रहो। दुविधा में कोई प्राप्ति नहीं इसलिए एक में ही सारा संसार अनुभव करो।

अपने को सदा हीरो पार्टधारी समझते हुए हर कर्म करो। जो हीरो पार्टधारी होते हैं उनको कितनी खुशी होती है, वह तो हुआ हद का पार्ट। आप सबका बेहद का पार्ट है। किसके साथ पार्ट बजाने वाले हैं! किसके सहयोगी हैं, किस सेवा के निमित्त हैं, यह स्मृति सदा रहे तो सदा हर्षित, सदा सम्पन्न, सदा डबल लाइट रहेंगे। हर कदम में उन्नति होती रहेगी। क्या थे और क्या बन गये! वाह मैं और वाह मेरा भाग्य! सदा यही गीत खूब गाओ और औरों को भी गाना सिखाओ। 5 हजार वर्ष की लम्बी लकीर खिंच गई तो खुशी में नाचो।

संगमयुग – बाप बच्चों के मधुर मिलन का युग


परिचय:

संगमयुग — वह दिव्य समय है जब आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है।
वह मिलन, जिसके लिए युगों-युगों से साधु-संत, योगी और भक्त प्रतीक्षा करते रहे —
वह अब इस समय सहज रूप में संभव है।

बापदादा कहते हैं —

“यह है ही बाप और बच्चों के मधुर मिलन का मेला।”
(अव्यक्त वाणी – 13 फरवरी 1985)


1. संगमयुग – बाप-बच्चों के मिलन का युग

यह संगमयुग केवल समय नहीं,
बल्कि “परमात्म मिलन” का युग है।
जहाँ वियोग नहीं, केवल सहज योग का अनुभव है।

बाबा कहते हैं:

“जो वियोगी हैं, वे ‘कब’ कहते रहते हैं।
लेकिन आप बच्चे ‘अभी वाले’ हो।”

यानी, भक्त ‘कब’ कहते-कहते रह गए —
और ज्ञानवान बच्चे ‘अभी’ अनुभव कर रहे हैं।

उदाहरण:
जैसे कोई समुंदर के किनारे पानी की प्रतीक्षा करता रहे —
और कोई सीधे जाकर उसमें डुबकी लगा ले —
वैसे ही भक्त प्रतीक्षा में हैं, और ब्राह्मण आत्माएँ मिलन का अनुभव कर रही हैं।


2. मिलन का मेला – परमात्म अनुभव की चरम स्थिति

बापदादा कहते हैं —

“अभी भी कोई पूछे कि बाप से मिलना कब और कितने समय में हो सकता है,
तो क्या कहेंगे? बच्चे के लिए बाप से मिलना मुश्किल हो नहीं सकता।”

यह मिलन “मन” के स्तर पर होता है।
मन को बाप को दे दो — तो मन ही बाप का हो जाता है।

उदाहरण:
जब कोई अपना दिल किसी को दे देता है,
तो फिर “दिल कैसे लगाऊँ” यह प्रश्न नहीं रहता।
ऐसे ही जब आत्मा अपना मन बाप को सौंप देती है,
तो “मन कैसे लगाऊँ” प्रश्न उठता ही नहीं।

“मन कैसे लगाना तो छोड़ो, मन ही उनका हो गया।”
(अव्यक्त मुरली, 13.2.1985)


3. ज्ञान सूर्य की लहरें और अनुभव

बापदादा बताते हैं —

“अमृतवेले ज्ञान सूर्य की किरणें जैसे-जैसे बढ़ती हैं,
वैसे-वैसे प्यार, सुख और शक्ति की लहरें भी उछलती हैं।”

यह अमृतवेला का महत्व समझाता है।
जैसे सूर्य का प्रकाश अंधकार मिटा देता है,
वैसे ही ज्ञान का प्रकाश मन के संकल्पों को शुद्ध कर देता है।

उदाहरण:
जब सुबह सूरज की पहली किरण फूल को छूती है,
तो वह खिल उठता है —
वैसे ही अमृतवेले आत्मा खिल उठती है।


4. ब्राह्मण जीवन – सागर में समाने का अनुभव

“लहरों में समाते-समाते सागर समान बन जाओ।”

यह ब्राह्मण जीवन का असली अनुभव है —
जहाँ आत्मा सागर समान, विशाल और अचल हो जाती है।

जो इस लहरों में समाने का अनुभव करते हैं —
वही “वर्से” (ईश्वरीय उत्तराधिकार) के अधिकारी बनते हैं।


5. माया का दलदल और दिलतख्त

बापदादा ने एक सुंदर तुलना दी —

“दुविधा दलदल बना देती है।
अभी तो दलदल से निकल, दिलतख्तनशीन हो गये हो।”

उदाहरण:
जैसे कोई दलदल के पास जाए तो वह व्यक्ति उसमें फँस जाता है —
वैसे ही जो दुविधा (दो मत, दो सोच) में जाता है,
वह माया में फँस जाता है।

पर जो दिलतख्त (दिल के तख्त) पर बैठा है —
वह राजा है, मालिक है —
वह माया पर राज्य करता है।


6. ब्राह्मण जीवन की सौगात – तीसरा नेत्र

“बर्थ-डे की गिफ्ट बाप द्वारा तीसरा नेत्र मिलता है।”

यह नेत्र बुद्धि का नेत्र है —
जिससे आत्मा परमात्मा को पहचानती है।

पहचानते ही मुख से पहला शब्द निकलता है — “बाबा।”
यही सच्चा जन्मदिन (Spiritual Birthday) है।


7. समर्थ आत्मा की पहचान

बापदादा ने कहा —

“विशेष आत्माएँ सेकण्डभर भी साधारण संकल्प नहीं कर सकतीं।”

समर्थ आत्मा वह है जो व्यर्थ को समाप्त कर देती है —
जैसे सूर्य अंधकार को समाप्त कर देता है।

उदाहरण:
जैसे सूरज को कोई छाया नहीं ढक सकती —
वैसे ही समर्थ आत्मा को कोई व्यर्थ संकल्प नहीं ढक सकता।


8. उमंग-उत्साह का युग – संगमयुग

“संगमयुग है ही उमंग-उत्साह का युग।”

अगर इस युग में उमंग नहीं होगा,
तो फिर कब होगा?

ब्राह्मण जीवन का मूल है —
उमंग (Joy) और उत्साह (Cheerfulness)।
उत्साही आत्मा कभी दुखी नहीं हो सकती।


9. एकरस स्थिति – सच्ची अचलता

“एक में सदा न्यारे और प्यारे। एक के सिवा दूसरा नहीं।”

जैसे नदियाँ समुंदर में मिलकर अपना अस्तित्व खो देती हैं,
वैसे ही आत्मा एक परमात्मा में समाकर अचल-अडोल बन जाती है।
जहाँ ‘एक’ है वहाँ ‘दुविधा’ नहीं।


10. हीरो पार्टधारी आत्मा – सदा सम्पन्न

“अपने को हीरो पार्टधारी समझकर हर कर्म करो।”

यह याद नशा देती है।
जब आत्मा जानती है कि मैं बेहद ड्रामा की हीरो हूँ —
तो कोई परिस्थिति उसे हिला नहीं सकती।


निष्कर्ष:

यह संगमयुग केवल परिवर्तन का युग नहीं,
बल्कि मिलन का युग है —
जहाँ आत्मा और परमात्मा के बीच
वियोग की नहीं,
सहज योग की अनुभूति होती है।

“हम तो सदा उन्हीं के साथ खाते-पीते, चलते, खेलते रहते हैं।”

“संगमयुग – बाप बच्चों के मधुर मिलन का युग”
(BapDada Milan Special – आत्मा और परमात्मा के मिलन का सच्चा रहस्य)


प्रश्न 1:

संगमयुग को बाप बच्चों के मिलन का युग क्यों कहा गया है?

उत्तर:
क्योंकि इस युग में ही वह दिव्य मिलन सम्भव होता है, जिसकी प्रतीक्षा अनेक युगों से आत्माएँ कर रही हैं।
कलियुग में आत्मा परमात्मा से वियोगी रहती है, द्वापर और त्रेता में उसकी याद मात्र रहती है, लेकिन संगमयुग में — वह साक्षात् मिलन हो जाता है।
यही वह अलौकिक समय है जब परमपिता शिव स्वयं आते हैं और कहते हैं — “मीठे बच्चे, अब मैं आया हूँ तुम्हें अपना बनाने, पहचान देने और वतन ले जाने।”
इसलिए संगमयुग है ही बाप और बच्चों के मिलन का मधुर युग।


प्रश्न 2:

बाप से मिलना क्या कठिन है या सहज है?

उत्तर:
बाप से मिलना कभी कठिन नहीं — बल्कि बेहद सहज और सदा का मिलन है।
जैसे बच्चा अपने बाप से मिलने के लिए कोई मेहनत नहीं करता — केवल याद करता है और मिल जाता है।
वैसे ही संगमयुग में आत्मा याद योग के माध्यम से परमात्मा से सेकण्ड में मिलन का अनुभव कर सकती है।
बापदादा कहते हैं — “जो बच्चे निश्चय और उमंग में रहते हैं, उनके लिए मिलना कभी मुश्किल नहीं।”
इसलिए हम हैं “अभी वाले”, न कि “कब वाले”।


प्रश्न 3:

परमात्मा से सच्चा प्यार कैसे होता है?

उत्तर:
जब आत्मा अपना मन बाप को दे देती है, तब प्यार करने की बात ही समाप्त हो जाती है — क्योंकि मन ही उनका हो गया।
तब प्यार करना नहीं पड़ता, प्यार का स्वरूप बन जाते हैं।
बापदादा कहते हैं — “मन कैसे लगायें, यह प्रश्न उठता ही नहीं क्योंकि मन तो मेरा हो गया।”
सच्चा योग यही है — जब आत्मा और परमात्मा एकरस प्रेम में लवलीन हो जाती है।


प्रश्न 4:

ज्ञान-सूर्य की किरणों से आत्मा को क्या अनुभव होता है?

उत्तर:
अमृतवेला की मुरली आत्मा को ऐसा अनुभव कराती है जैसे ज्ञान-सूर्य की किरणों से प्रेम, सुख, शान्ति और शक्ति की लहरें उछल रही हों।
जितना ज्ञान का प्रकाश बढ़ता है, उतनी प्रेम की लहरें भी बढ़ती हैं।
आत्मा सागर में समाने लगती है — यही है ब्राह्मण जीवन की श्रेष्ठता।


प्रश्न 5:

ब्राह्मण जीवन की विशेषता क्या है?

उत्तर:
ब्राह्मण जीवन का अर्थ है — सदा बाप के स्नेह की लहरों में लहराना।
जो आत्मा सागर में समा जाती है, वही सच्ची ब्राह्मण आत्मा है।
ब्राह्मण जीवन में कभी दुविधा, माया, या दलदल नहीं होती — क्योंकि वे “दिल-तख्तनशीन” बन चुके हैं।
बापदादा कहते हैं — “सोचो कहाँ दलदल और कहाँ दिलतख्त!”


प्रश्न 6:

“दुविधा दलदल बनाती है” — इसका अर्थ क्या है?

उत्तर:
जब आत्मा का ध्यान दो ओर जाता है — एक बाप की ओर और एक माया की ओर — तो मन दुविधा में पड़ जाता है।
यह दुविधा ही दलदल बन जाती है, जो आत्मा को नीचे खींच लेती है।
इसलिए बापदादा कहते हैं — “एक बाप, दूसरा न कोई।”
स्मृति में एक बाप रहे तो आत्मा सदा अचल-अडोल और डबल लाइट रहती है।


प्रश्न 7:

सच्ची बर्थ-डे गिफ्ट कौन-सी है जो बाप देता है?

उत्तर:
सच्ची गिफ्ट है — “तीसरा नेत्र” — अर्थात् दिव्य दृष्टि।
इस नेत्र से आत्मा परमात्मा को पहचानती है, और मुख से पहला शब्द निकलता है — “बाबा!”
यही ब्राह्मण जन्म की पहचान है।
जो इस नेत्र को सदा संभाल कर रखता है, वही सच्चा वारिस बनता है।


प्रश्न 8:

समर्थ आत्मा किसे कहा गया है?

उत्तर:
समर्थ आत्मा वह है जो व्यर्थ को समाप्त कर देती है।
जैसे सूर्य अंधकार को मिटा देता है, वैसे समर्थ आत्मा व्यर्थ संकल्पों को समाप्त कर देती है।
उसकी स्मृति ही उसकी शक्ति है।
जब आत्मा अपने “स्मृति स्वरूप” में रहती है, तो स्वतः “समर्थ स्वरूप” बन जाती है।


प्रश्न 9:

ब्राह्मण जीवन में उमंग-उत्साह क्यों आवश्यक है?

उत्तर:
क्योंकि संगमयुग ही उमंग-उत्साह का युग है।
यदि इस समय उमंग-उत्साह नहीं रहेगा, तो फिर कभी नहीं रह सकता।
उमंग आत्मा को आगे बढ़ाता है और उत्साह खुशी की निशानी है।
जो आत्मा सदा उत्साही रहती है, वही हर परिस्थिति में विजयी बनती है।


प्रश्न 10:

एकरस स्थिति का रहस्य क्या है?

उत्तर:
एकरस स्थिति का अर्थ है — सदा एक बाप में बुद्धि लगाना।
जहाँ एक होगा वहाँ खिटखिट नहीं।
जब बुद्धि एक परमात्मा में स्थिर हो जाती है, तो आत्मा अचल-अडोल बन जाती है।
बापदादा कहते हैं — “एक में ही सारा संसार अनुभव करो, क्योंकि एक में ही सब कुछ है।”


समापन संदेश:

संगमयुग वह दिव्य समय है, जब परमात्मा स्वयं आकर आत्माओं को अपना बनाते हैं।
यह कोई साधारण युग नहीं — यह है “सदा मिलन मेला मनाने का युग”।
इसलिए बापदादा कहते हैं —
“सदा हर्षित, सदा सम्पन्न, सदा डबल लाइट रहो। जो चाहा था — वह मिल गया।”

संगमयुग, बाप बच्चों के मिलन का युग, मिलन मेला, अव्यक्त बापदादा, ब्रह्माकुमारी मुरली, अव्यक्त वाणी, ब्रह्माकुमारी संगमयुग, आत्मा परमात्मा मिलन, परमात्मा शिव, ब्रह्मा बाबा, ब्रह्माकुमारिज ज्ञान, ब्रह्माकुमारी अव्यक्त मुरली, ब्रह्माकुमारिज शिवबाबा, बापदादा मिलन, आत्मा का परमात्मा से मिलन, सहज राजयोग, योग अनुभव, ब्रह्माकुमारिज हिंदी, ब्रह्माकुमारिज स्पिरिचुअल वीडियो, ब्रह्माकुमारी ज्ञान चर्चा, संगमयुग का रहस्य, बापदादा के संदेश, ब्रह्माकुमारिज मेडिटेशन, राजयोग मेडिटेशन, आत्मिक स्थिति, ब्रह्माकुमारिज शिवबाबा ज्ञान, ब्रह्माकुमारिज मिलन मेला, ब्रह्माकुमारिज वीडियो, बापदादा अव्यक्त मिलन, आत्मा और परमात्मा, ब्रह्माकुमारिज राजयोग, आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मज्ञान, ब्रह्माकुमारिज मुरली अर्थ, अव्यक्त बापदादा संदेश, ब्रह्माकुमारिज हिंदी स्पीच, संगमयुग ज्ञान, ब्रह्माकुमारिज आध्यात्मिक वीडियो, शिवबाबा के वचन, बापदादा के बोल, ब्रह्माकुमारिज प्रेरणादायक वीडियो, ब्रह्माकुमारिज संदेश, राजयोग शक्ति, मिलन की अनुभूति, ब्रह्माकुमारिज ब्रह्मा बाबा मिलन, ब्रह्माकुमारिज सच्चा मिलन, ब्रह्माकुमारिज हर्षित जीवन, अव्यक्त मिलन अनुभव, ब्रह्माकुमारिज दिलतख्तनशीन, स्मृति स्वरूप, समर्थ आत्मा, उमंग उत्साह, डबल लाइट स्थिति, अचल अडोल आत्मा, एकरस स्थिति, संगमयुग की विशेषता, परमात्मा से स्नेह, प्रेम स्वरूप आत्मा, ब्राह्मण जीवन की पहचान, आध्यात्मिक उन्नति, आत्मिक शक्ति, ब्रह्माकुमारिज जीवन शैली,

Confluence Age, the age of meeting of fathers and children, meeting fair, Avyakt BapDada, Brahma Kumaris Murli, Avyakt Vani, Brahma Kumaris Confluence Age, meeting of soul and Supreme Soul, Supreme Soul Shiva, Brahma Baba, Brahma Kumaris knowledge, Brahma Kumaris Avyakt Murli, Brahma Kumaris Shivbaba, BapDada meeting, meeting of soul with Supreme Soul, easy Rajyoga, yoga experience, Brahma Kumaris Hindi, Brahma Kumaris Spiritual Video, Brahma Kumaris Knowledge Discussion, secret of Confluence Age, BapDada’s message, Brahma Kumaris meditation, Rajyoga meditation, soullike state, Brahma Kumaris Shivbaba knowledge, Brahma Kumaris meeting fair, Brahma Kumaris video, BapDada’s Avyakt meeting, soul and Supreme Soul, Brahma Kumaris Rajyoga, spiritual knowledge, self-knowledge, Brahma Kumaris Murli meaning, Avyakt BapDada message, Brahma Kumaris Hindi speech, Confluence Age knowledge, Brahma Kumaris spiritual video, Shivbaba’s words, BapDada’s words, Brahma Kumaris inspirational video, Brahma Kumaris message, Rajyoga power, meeting Experience, Brahma Kumaris meeting with Brahma Baba, Brahma Kumaris true meeting, Brahma Kumaris joyful life, experience of unexpressed meeting, Brahma Kumaris seated on the throne of the heart, form of memory, powerful soul, zeal and enthusiasm, double light state, unshakeable and unshakable soul, constant state, speciality of Confluence Age, love for God, soul embodiment of love, identity of Brahmin life, spiritual progress, spiritual power, Brahma Kumaris lifestyle,