Avyakta Murli-(24)“17-04-1983

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अव्यक्त मुरली-(24)17-04-1983“कर्मातीत स्थिति के लिए समेटने और समाने की शक्तियों की आवश्यकता”

(प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

17-04-1983 “कर्मातीत स्थिति के लिए समेटने और समाने की शक्तियों की आवश्यकता”

आवाज से परे अपनी श्रेष्ठ स्थिति को अनुभव करते हो? वह श्रेष्ठ स्थिति सर्व व्यक्त आकर्षण से परे शक्तिशाली न्यारी और प्यारी स्थिति है। एक सेकण्ड भी इस श्रेष्ठ स्थिति में स्थित हो जाओ तो उसका प्रभाव सारा दिन कर्म करते हुए भी स्वयं में विशेष शान्ति की शक्ति अनुभव करेंगे। इसी स्थिति को कर्मातीत स्थिति, बाप समान सम्पूर्ण स्थिति कहा जाता है। इसी स्थिति द्वारा हर कार्य में सफलता का अनुभव कर सकते हो। ऐसी शक्तिशाली स्थिति का अनुभव किया है? ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य है कर्मातीत स्थिति को पाना। तो लक्ष्य को प्राप्त करने के पहले अभी से इसी अभ्यास में रहेंगे तब ही लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। इसी लक्ष्य को पाने के लिए विशेष स्वयं में समेटने की शक्ति, समाने की शक्ति आवश्यक है। क्योंकि विकारी जीवन वा भक्ति की जीवन दोनों में जन्म-जन्मान्तर से बुद्धि का विस्तार में भटकने का संस्कार बहुत पक्का हो गया है। इसलिए ऐसे विस्तार में भटकने वाली बुद्धि को सार रूप में स्थित करने के लिए इन दोनों शक्तियों की आवश्यकता है। शुरु से देखो – अपने देह के भान के कितने वैरायटी प्रकार के विस्तार हैं। उसको तो जानते हो ना! मैं बच्चा हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बुजुर्ग हूँ। मैं फलाने-फलाने आक्यूपेशन वाला हूँ। इसी प्रकार के देह की स्मृति के विस्तार कितने हैं! फिर सम्बन्ध में आओ कितना विस्तार है। किसका बच्चा है तो किसका बाप है, कितने विस्तार के सम्बन्ध हैं। उसको वर्णन करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जानते हो। इसी प्रकार देह के पदार्थों का भी कितना विस्तार है! भक्ति में अनेक देवताओं को सन्तुष्ट करने का कितना विस्तार है। लक्ष्य एक को पाने का है लेकिन भटकने के साधन अनेक हैं। इतने सभी प्रकार के विस्तार को सार रूप में लाने के लिए समाने की वा समेटने की शक्ति चाहिए। सर्व विस्तार को एक शब्द से समा देते। वह क्या? बिन्दू। मैं भी बिन्दू, बाप भी बिन्दू। एक बाप बिन्दू में सारा संसार समाया हुआ है। यह तो अच्छी तरह से अनुभवी हो ना। संसार में एक है सम्बन्ध, दूसरी है सम्पत्ति। दोनों विशेषतायें बिन्दू बाप में समाई हुई हैं। सर्व सम्बन्ध एक द्वारा अनुभव किया है? सर्व सम्पत्ति की प्राप्ति सुख-शान्ति, खुशी यह भी अनुभव किया है या अभी करना है? तो क्या हुआ? विस्तार सार में समा गया ना! अपने आप से पूछो अनेक तरफ विस्तार में भटकने वाली बुद्धि समेटने की शक्ति के आधार पर एक में एकाग्र हो गई है? वा अभी भी कहाँ विस्तार में भटकती है! समेटने की शक्ति और समाने की शक्ति का प्रयोग किया है? या सिर्फ नॉलेज है! अगर इन दोनों शक्तियों को प्रयोग करना आता है तो उसकी निशानी सेकण्ड में जहाँ चाहे जब चाहे बुद्धि उसी स्थिति में स्थित हो जायेगी। जैसे स्थूल सवारी में पॉवरफुल ब्रेक होती है तो उसी सेकण्ड में जहाँ चाहें वहाँ रोक सकते हैं। जहाँ चाहें वहाँ गाड़ी को या सवारी को उसी दिशा में ले जा सकते हैं। ऐसे स्वयं यह शक्ति अनुभव करते हो वा एकाग्र होने में समय लगता है? वा व्यर्थ से समर्थ की ओर बुद्धि को स्थित करने में मेहनत लगती है तो समझो इन दोनों शक्तियों की कमी है। संगमयुग के ब्राह्मण जीवन की विशेषता है ही सार रूप में स्थित हो – सदा सुख-शान्ति के, खुशी के, ज्ञान के, आनन्द के झूले में झूलना। सर्व प्राप्तियों के सम्पन्न स्वरूप के अविनाशी नशे में स्थित रहो। सदा चेहरे पर प्राप्ति ही प्राप्ति है, उस सम्पन्न स्थिति की झलक और फलक दिखाई दे। जब सिर्फ स्थूल धन से सम्पन्न विनाशी राजाई प्राप्त करने वाले राजाओं के चेहरे पर भी द्वापर के आदि में वह चमक थी। यहाँ तो अविनाशी प्राप्ति है। तो कितनी रूहानी झलक और फलक चेहरे से दिखाई देगी! ऐसे अनुभव करते हो? वा सिर्फ अनुभव सुन करके खुश होते हो! पाण्डव सेना विशेष है ना! पाण्डव सेना को देख हर्षित जरूर होते हैं। लेकिन पाण्डवों की विशेषता – सदा बहादुर दिखाते हैं, कमज़ोर नहीं। अपने यादगार चित्र देखे हैं ना। चित्रों में भी महावीर दिखाते हैं ना। तो बापदादा भी सभी पाण्डवों को विशेष रूप से, सदा विजयी, सदा बाप के साथी अर्थात् पाण्डवपति के साथी, बाप समान मास्टर सर्वशक्तिवान स्थिति में सदा रहें, यही विशेष स्मृति का वरदान दे रहे हैं। भले नये भी आये हो लेकिन हो तो कल्प पहले के अधिकारी आत्मायें। इसलिए सदा अपने सम्पूर्ण अधिकार को पाना ही है – इस नशे और निश्चय में सदा रहना। समझा। अच्छा!

सदा सेकण्ड में बुद्धि को एकाग्र कर, सर्व प्राप्ति को अनुभव कर, सदा सर्व शक्तियों को समय प्रमाण प्रयोग में लाते, सदा एक बाप में सारा संसार अनुभव करने वाले, ऐसे सम्पन्न और समान श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ:-

1- अधरकुमारों के साथ:- ऐसा श्रेष्ठ भाग्य कभी अपने लिए सोचा था? कभी उम्मीद भी नहीं थी कि इतना श्रेष्ठ भाग्य हमें प्राप्त हो सकता है लेकिन नाउम्मीद आत्माओं को बाप ने उम्मीदवार बना दिया। नाउम्मीदी का समय अब समाप्त हो गया। अभी हर कदम में उम्मीद रहती है कि हमारी सफलता है ही। यह संकल्प तो नहीं आता कि पता नहीं होगी या नहीं होगी? किसी भी कार्य में चाहे स्वयं के पुरूषार्थ में, चाहे सेवा में, दोनों में नाउम्मीदी का संस्कार समाप्त हो जाए। कोई भी संस्कार चाहे काम का, चाहे लोभ का, चाहे अहंकार का, बदलने में नाउम्मीदी न आए। ऐसे नहीं मैं तो बदल ही नहीं सकता, यह तो बदलना बड़ा मुश्किल है। ऐसा संकल्प भी न आये क्योंकि अगर अभी नहीं खत्म करेंगे तो कब करेंगे? अभी दशहरा है ना। सतयुग में तो दीपमाला हो जायेगी। रावण को खत्म करने का दशहरा अभी है। इसमें सदा विजय का उमंग-उत्साह रहे। नाउम्मीदी के संस्कार नहीं। कोई भी मुश्किल कार्य इतना सहज अनुभव हो जैसे कोई बड़ी बात ही नहीं है क्योंकि अनेक बार कार्य कर चुके हैं। कोई नई बात नहीं कर रहे हैं। कई बार की हुई को रिपीट कर रहे हैं। तो सदा उम्मीदवार। नाउम्मीद का नामनिशान भी न रहे। कभी कोई स्वभाव-संस्कार में संकल्प न आये कि पता नहीं यह परिवर्तन होगा या नहीं होगा। सदा के विजयी, कभी-कभी के नहीं। अगर कोई स्वप्न में भी कमी हो तो उसको सदा के लिए समाप्त कर देना। नाउम्मीद को सदा के लिए उम्मीद में बदल देना। निश्चय अटूट है तो विजय भी सदा है। निश्चय में जब क्यों, क्या आता तो विजय अर्थात् प्राप्ति में भी कुछ न कुछ कमी पड़ जाती है तो सदा उम्मीदवार, सदा विजयी। नाउम्मीदों को सदाकाल के लिए उम्मीदों में बदलने वाले।

2- सदा अपने को संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें, पुरूषोत्तम आत्मायें वा ब्राह्मण चोटी महान आत्मायें समझते हो? अभी से पुरूषोत्तम बन गये ना। दुनिया में और भी पुरूष हैं लेकिन उन्हों से न्यारे और बाप के प्यारे बन गये इसलिए पुरूषोत्तम बन गये। औरों के बीच में अपने को अलौकिक समझते हो ना! चाहे सम्पर्क में लौकिक आत्माओं के आते लेकिन उनके बीच में रहते हुए भी मैं अलौकिक न्यारी हूँ यह तो कभी नहीं भूलना है ना! क्योंकि आप बन गये हो हंस, ज्ञान के मोती चुगने वाले होलीहंस हो। वह हैं गन्द खाने वाले बगुले। वे गन्द ही खाते, गन्द ही बोलते… तो बगुलों के बीच में रहते हुए अपना होलीहंस जीवन कभी भूल तो नहीं जाते! कभी उसका प्रभाव तो नहीं पड़ जाता? वैसे तो उसका प्रभाव है मायावी और आप हो मायाजीत। तो आपका प्रभाव उन पर पड़ना चाहिए, उनका आप पर नहीं। तो सदा अपने को होलीहंस समझते हो? होलीहंस कभी भी बुद्धि द्वारा सिवाए ज्ञान के मोती के और कुछ स्वीकार नहीं कर सकते। ब्राह्मण आत्मायें जो ऊंच हैं, चोटी हैं वह कभी भी नीचे की बातें स्वीकार नहीं कर सकते। बगुले से होलीहंस बन गये। तो होलीहंस सदा स्वच्छ, सदा पवित्र। पवित्रता ही स्वच्छता है। हंस सदा स्वच्छ हैं सदा सफेद-सफेद। सफेद भी स्वच्छता वा पवित्रता की निशानी है। आपकी ड्रेस भी सफेद है। यह प्युरिटी की निशानी है। किसी भी प्रकार की अपवित्रता है तो होलीहंस नहीं। होलीहंस संकल्प भी अशुद्ध नहीं कर सकते। संकल्प भी बुद्धि का भोजन है। अगर अशुद्ध वा व्यर्थ भोजन खाया तो सदा तन्दुरूस्त नहीं रह सकते। व्यर्थ चीज को फेंका जाता, इकट्ठा नहीं किया जाता इसलिए व्यर्थ संकल्प को भी समाप्त करो, इसी को ही होलीहंस कहा जाता है। अच्छा।

पाण्डवों से:- पाण्डव अर्थात् संकल्प और स्वप्न में भी हार न खाने वाले। विशेष यह स्लोगन याद रखना कि पाण्डव अर्थात् सदा विजयी। स्वप्न भी विजय का आये। इतना परिवर्तन करना। सभी जो बैठे हो विजयी पाण्डव हो। वहाँ जाकर हार खा ली, यह पत्र तो नहीं लिखेंगे। माया आ नहीं जाती लेकिन आप उसे खुद बुलाते हो। कमजोर बनना अर्थात् माया को बुलाना। तो किसी भी प्रकार की कमजोरी माया को बुलाती है। तो पाण्डवों ने क्या प्रतिज्ञा की? सदा विजयी रहेंगे। हार खाकरके छिपना नहीं, लेकिन सदा विजयी रहना। ऐसे प्रतिज्ञा करने वालों को सदा बापदादा की बधाई मिलती रहती है। सदा वाह-वाह के गीत बाप ऐसे बच्चों के लिए गाते रहते हैं। तो वाह-वाह के गीत सुनेंगे ना सभी। हार होगी तो हाय-हाय करेंगे, विजयी होंगे तो वाह-वाह करेंगे। सब विजयी, सारे ग्रुप में एक भी हार खाने वाला नहीं।

“कर्मातीत स्थिति के लिए समेटने और समाने की शक्तियों की आवश्यकता | ब्रह्माकुमारीज आध्यात्मिक भाषण”

 भाषण

1. प्रस्तावना

ओम् शान्ति।
ब्रह्मण जीवन का लक्ष्य है – कर्मातीत स्थिति
यानी ऐसी स्थिति जिसमें आत्मा शरीर और कर्मों से परे, शान्ति और शक्ति से सम्पन्न होकर बाप समान अनुभव करे।

क्या आपने कभी आवाज़ से परे अपनी उस श्रेष्ठ, न्यारी और प्यारी स्थिति को अनुभव किया है, जिसमें एक सेकण्ड भी ठहरो तो दिनभर शान्ति और शक्ति का अनुभव होता है?
यही है कर्मातीत स्थिति।


2. कर्मातीत स्थिति का महत्व

  • इसी स्थिति से हर कार्य में सफलता अनुभव होती है।

  • ब्राह्मण जीवन का अंतिम लक्ष्य – बाप समान सम्पूर्ण और सदा विजयी बनना

  • इस स्थिति के लिए दो विशेष शक्तियों की आवश्यकता है:

    1. समेटने की शक्ति

    2. समाने की शक्ति


3. विस्तार से सार की यात्रा

जन्म-जन्मांतर से मन और बुद्धि विस्तार में भटकते आये हैं –

  • देह के विस्तार: बच्चा, जवान, बुजुर्ग, नौकरी, पदवी।

  • संबंधों के विस्तार: मैं इसका बेटा हूँ, इसका पिता हूँ आदि।

  • पदार्थों के विस्तार: धन, सम्पत्ति, साधन।

  • भक्ति का विस्तार: अनेक देवी-देवताओं को साधना।

 लेकिन लक्ष्य एक ही है – परमात्मा बाप को पाना
इसलिए इन सब विस्तार को समेटने के लिए चाहिए समाने की शक्ति


4. बिन्दु में समाना – असली राज़

  • मैं भी बिन्दु आत्मा हूँ।

  • बाप भी बिन्दु परमात्मा है।

  • बिन्दु बाप में ही संसार के सारे संबंध और सम्पत्ति समायी हुई है।

क्या हमने यह अनुभव किया है कि वास्तव में विस्तार सार में समा गया है?
या बुद्धि अभी भी यहाँ-वहाँ भटकती रहती है?


5. प्रयोग की पहचान

  • यदि बुद्धि को सेकण्ड में एकाग्र कर सकें,

  • व्यर्थ से समर्थ की ओर तुरन्त बदल सकें,
    तो समझो समाने और समेटने की शक्तियाँ प्राप्त हैं।

 जैसे गाड़ी में पॉवरफुल ब्रेक हो तो सेकण्ड में रुक जाती है।
ऐसे ही आत्मा अपनी बुद्धि को जहाँ चाहे, जब चाहे, रोक और स्थित कर सके।


6. संगमयुगी ब्राह्मण जीवन की विशेषता

  • सार रूप में स्थित रहना।

  • सदा सुख-शान्ति, खुशी और आनन्द के झूले में झूलना।

  • चेहरे से अविनाशी प्राप्तियों की झलक और फलक दिखाई देना।

  • पाण्डव सेना का स्मरण – सदैव बहादुर, सदा विजयी।


7. बापदादा का वरदान

सदा सेकण्ड में बुद्धि को एकाग्र करो।
सदा सर्वशक्तियों को समय-प्रमाण प्रयोग में लाओ।
सदा एक बाप में सारा संसार अनुभव करो।

यही है सम्पन्न और समान श्रेष्ठ आत्माओं की निशानी।


8. निष्कर्ष

  • कर्मातीत स्थिति सहज तभी संभव है जब बुद्धि को व्यर्थ विस्तार से समेटकर सार में ले आएं।

  • समेटने और समाने की शक्ति ही आत्मा को बाप समान सम्पूर्ण स्थिति तक पहुँचाती है।

  • अब समय है – नाउम्मीदी को छोड़कर सदा उम्मीद, सदा विजयी बनने का।

  • प्रश्न 1: कर्मातीत स्थिति क्या है?

     उत्तर: कर्मातीत स्थिति वह अवस्था है जब आत्मा शरीर और कर्मों से परे होकर शान्ति, शक्ति और बाप समान सम्पूर्णता का अनुभव करती है। इस स्थिति में रहकर हर कार्य में सफलता और सहजता मिलती है।


     प्रश्न 2: कर्मातीत स्थिति तक पहुँचने के लिए किन शक्तियों की आवश्यकता है?

     उत्तर: इसके लिए दो मुख्य शक्तियों की आवश्यकता है:

    1. समेटने की शक्ति – मन और बुद्धि को व्यर्थ विस्तार से हटाकर सार में लाने की क्षमता।

    2. समाने की शक्ति – सभी विस्तार को बिन्दु रूप में समा देने की कला।


    प्रश्न 3: विस्तार से सार में क्यों आना ज़रूरी है?

     उत्तर: जन्म-जन्मांतर से आत्मा देह, सम्बन्ध, पदार्थ और भक्ति के विस्तार में उलझी रही है। लेकिन असली लक्ष्य एक ही है – परमात्मा बाप को पाना। इसलिए सभी विस्तार को समेटकर एक बिन्दु में स्थित होना ही मुक्ति और सफलता का मार्ग है।


     प्रश्न 4: बिन्दु में समाने का असली राज़ क्या है?

     उत्तर: आत्मा भी बिन्दु है और परमात्मा बाप भी बिन्दु है। बाप में ही सारे सम्बन्ध और सम्पत्ति समाई हुई है। जब आत्मा यह अनुभव करती है कि सारे विस्तार एक बिन्दु परमात्मा में समा गये, तभी असली शान्ति और सम्पन्नता मिलती है।


     प्रश्न 5: यह कैसे पहचाने कि समाने और समेटने की शक्तियाँ आई हैं?

    उत्तर: जब आत्मा सेकण्ड में बुद्धि को एकाग्र कर सके, व्यर्थ संकल्पों को तुरन्त बदलकर समर्थ संकल्प बना सके, तब समझो यह दोनों शक्तियाँ प्राप्त हो गई हैं।


     प्रश्न 6: संगमयुगी ब्राह्मण जीवन की विशेषता क्या है?

     उत्तर: इसकी विशेषता है सार रूप में स्थित रहना – यानी सदा सुख, शान्ति, खुशी और आनन्द का अनुभव करना, और चेहरे से अविनाशी प्राप्तियों की झलक दिखाना।


    प्रश्न 7: बापदादा का इस पर विशेष वरदान क्या है?

     उत्तर: बापदादा कहते हैं –

    • सेकण्ड में बुद्धि को एकाग्र करो।

    • सर्वशक्तियों को समय-प्रमाण प्रयोग करो।

    • एक बाप में ही सारा संसार अनुभव करो।
      यही सम्पन्न और समान श्रेष्ठ आत्मा की पहचान है।


     प्रश्न 8: निष्कर्ष में क्या सीख मिलती है?

     उत्तर: कर्मातीत स्थिति सहज तभी सम्भव है जब आत्मा बुद्धि को व्यर्थ विस्तार से समेटकर सार में स्थित करे। समाने और समेटने की शक्ति ही आत्मा को बाप समान सम्पूर्ण और सदा विजयी स्थिति तक पहुँचाती है।

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Disclaimer (डिस्क्लेमर)यह वीडियो/लेख केवल आध्यात्मिक अध्ययन और प्रेरणा के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है। इसका उद्देश्य किसी भी धर्म, परंपरा, संस्था या आस्था की आलोचना करना नहीं है। दर्शकों से विनम्र निवेदन है कि इस सामग्री को आत्मिक उन्नति और आत्म-जागृति के दृष्टिकोण से ग्रहण करें।