Arjun’s thought and God’s first lesson

अर्जुन का विचार और भगवान की पहली सीख

( प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)

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अर्जुन का विषाद और भगवान की पहली सीख

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 1-10 संग्राम की भूमि पर आत्मिक संवाद की शुरुआत

 जब जीवन के मैदान में आत्मा कमजोर पड़ती है, तब उसे चाहिएईश्वरीय संबल।

गीता के दूसरे अध्याय की शुरुआत होती है विषाद की चरम सीमा से और दिव्य समाधान की ओर।

 यह अध्याय केवल युद्ध की शुरुआत नहीं, बल्कि आत्मिक जागृति काउद्घाटन है।

श्लोक 1: “संजय उवाच…”संजय दृष्टा है वह बताता है कि अर्जुन शोक में डूबा है, और तब श्रीकृष्ण ने क्या किया।

  मुरली बिंदु:मीठे बच्चे, दुखों का कारण है देह-अभिमान और आत्मा की स्मृति का अभाव।

  श्लोक 2: “कुतस्त्वा कश्मलमिदं…”भगवान ने कहा – “हे अर्जुन! तुझे यह मोह कैसे हुआ?”

 यह श्लोक आत्मिक जागृति की पहली चोट है।

किसी भी ईश्वरीय ज्ञान की शुरुआत होती है – “तुम कौन हो?” से।

  ब्रह्माकुमारियों का दृष्टिकोण:संगम युग पर परमात्मा भी हमें यही पूछते हैं

“बच्चे! आत्मा बनो, मोह को छोड़ो।” श्लोक 3: “क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ…”

श्रीकृष्ण कहते हैं “अर्जुन! निर्बलता का आश्रय मत ले। यह तुम्हारे योग्य नहीं है।”

  यह है आत्मिक साहस की स्थापना।पुरुषार्थी आत्मा वही है जो Maya के सामने खड़ी होती है।

  मुरली बिंदु:जो बच्चे डरते हैं, आलस्य करते हैं, वह माया के सामने हार जाते हैं।

  श्लोक 4-5: अर्जुन की विनम्रता लेकिन मोह से जुड़ी दुविधा

“हे मधुसूदन! मैं अपने गुरुजनों पर कैसे बाण चलाऊँ?”  अर्जुन की यह दुविधा धर्म और मोह के बीच है।

  ब्रह्माकुमारियों की दृष्टि से:कई आत्माएँ कहते हैं – “परिवार कैसे छोड़े, मोह कैसे हटाएं?”

  मुरली:बच्चे! मोह सबसे बड़ा शत्रु है यही आध्यात्मिक मार्ग में बाधा बनता है।

  श्लोक 6: “न चैतद्विद्मः…”अर्जुन कहता है — “हमें नहीं पता क्या उचित है लड़ना या नहीं।”

  यह है निर्णय की दुर्बलता। बाबा कहते हैं:“जब बुद्धि स्पष्ट नहीं, तब साक्षात्कार की जरूरत होती है स्वधर्म की याद दिलाओ।”

  श्लोक 7: “कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः…“हे कृष्ण! मैं शरणागत हूँ मुझे बताओ क्या ठीक है।”

  यह है अध्याय का सबसे पवित्र मोड़ अर्जुन आत्मसमर्पण करता है।मुरली बिंदु:

जब बच्चा सच्चे मन से कहता है बाबा! अब मैं नहीं, तू ही करवा’, तब परिवर्तन होता है।

  श्लोक 8: अर्जुन का आत्मविषाद“हे गोविंद! यह मोह मेरे हृदय से नहीं जा रहा…”

  ये शब्द हर आध्यात्मिक साधक के पहले अनुभव जैसे हैं ज्ञान सुनते हैं, लेकिन विकार, मोह, कमजोरी बनी रहती है।

  बाबा कहते हैं:मोह हटेगा स्वको देखने से, और बाबाको याद करने से।

  श्लोक 9-10: मौन और संवाद की शुरुआत अर्जुन बैठ गया — “मैं नहीं लडूंगा।”

अब श्रीकृष्ण शुरू करते हैं दिव्य ज्ञान। मुरली:जब आत्मा मौन में जाती है तभी उसे शिव बाबा के सहज संकेत मिलते हैं।

  निष्कर्ष: यह संवाद मेरा और परमात्मा का है हे आत्मन!अर्जुन की कहानी, तुम्हारी कहानी है।

जब तुम भी जीवन के द्वार पर खड़े हो भ्रम, मोह, मोहभंग और भय से भरे तब बाबा तुम्हें भी कहता है:

 “बच्चे! अब मोह छोड़, स्वधर्म में अडिग हो जा मैं तेरे साथ हूँ।”

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 | श्लोक 1-10: संग्राम की भूमि पर आत्मिक संवाद की शुरुआत


❓प्रश्न 1: गीता के अध्याय 2 की शुरुआत किस मनोस्थिति से होती है?

उत्तर:अध्याय 2 की शुरुआत होती है अर्जुन के गहरे विषाद से — जहाँ वह मोह, भ्रम और दुख में डूबा है। यह आत्मा की उस अवस्था को दर्शाता है जब वह कर्मभूमि में कमजोर पड़ जाती है और ईश्वरीय संबल की आवश्यकता होती है।

📌 मुरली बिंदु: “दुखों का कारण है – देह-अभिमान और आत्मा की स्मृति का अभाव।”


❓प्रश्न 2: श्लोक 2 में श्रीकृष्ण अर्जुन से क्या प्रश्न करते हैं?

उत्तर:श्रीकृष्ण पूछते हैं — “कुतस्त्वा कश्मलमिदं…” अर्थात् “अर्जुन! यह मोह तुझे कैसे लग गया?”

 यह आत्मिक जागृति की पहली चोट है, जहाँ परमात्मा आत्मा से पूछता है – “तू कौन है?”
ब्रह्माकुमारियों में इसे परमात्मा का आत्मा को जगाने का पहला प्रयास माना जाता है।


❓प्रश्न 3: श्लोक 3 में श्रीकृष्ण आत्मा को क्या निर्देश देते हैं?

उत्तर:श्रीकृष्ण कहते हैं — “निर्बलता को मत अपनाओ। यह तुम्हारे योग्य नहीं है।”
यह श्लोक आत्मिक साहस की स्थापना करता है, जो ब्रह्माकुमारियों के अनुसार, माया के सामने अडिग रहने की स्थिति है।

मुरली: “जो बच्चे डरते हैं, आलस्य करते हैं, वह माया के सामने हार जाते हैं।”


❓प्रश्न 4: श्लोक 4 और 5 अर्जुन की किस दुविधा को दर्शाते हैं?

उत्तर:अर्जुन कहता है — “मैं अपने गुरुजनों पर बाण कैसे चलाऊँ?”
यह मोह और धर्म के बीच की द्वंद्व की स्थिति है, जो प्रत्येक साधक अनुभव करता है।
ब्रह्माकुमारियों के अनुसार, यही वह समय होता है जब मोह आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़ी रुकावट बनता है।

📌 मुरली: “मोह सबसे बड़ा शत्रु है।”


❓प्रश्न 5: श्लोक 6 में अर्जुन का कौन-सा भय प्रकट होता है?

उत्तर:अर्जुन कहता है — “हमें नहीं पता, क्या उचित है – युद्ध करना या नहीं।”
यह निर्णय की दुर्बलता है, जो उस आत्मा की दशा है जो स्वधर्म को भूल चुकी है।

📌 बाबा: “जब बुद्धि स्पष्ट नहीं, तब साक्षात्कार की जरूरत होती है।”


❓प्रश्न 6: श्लोक 7 को अध्याय का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ क्यों कहा गया है?

उत्तर:क्योंकि यहाँ अर्जुन कहता है — “मैं आपकी शरण में हूँ, मुझे बताइए क्या ठीक है।”
यह आत्मसमर्पण की अवस्था है, जहाँ साधक अपने अहंकार को त्याग कर परमात्मा को मार्गदर्शक बना लेता है।

मुरली बिंदु: “जब बच्चा सच्चे मन से कहता है ‘बाबा! अब मैं नहीं, तू ही करवा’, तब परिवर्तन होता है।”


❓प्रश्न 7: श्लोक 8 अर्जुन की किस आंतरिक कमजोरी को उजागर करता है?

उत्तर:अर्जुन कहता है — “हे गोविंद! यह मोह मेरे हृदय से नहीं जा रहा…”
यह उस साधक की स्थिति है जो ज्ञान सुनकर भी अंदर से स्थिर नहीं हो पाता।

बाबा: “मोह हटेगा ‘स्व’ को देखने और ‘बाबा’ को याद करने से।”


❓प्रश्न 8: श्लोक 9-10 में क्या परिवर्तन दिखता है?

उत्तर:अब अर्जुन मौन हो जाता है और कहता है — “मैं युद्ध नहीं करूँगा।”
यह वह मौन है जहाँ श्रीकृष्ण अपना दिव्य ज्ञान देना आरंभ करते हैं।
ब्रह्माकुमारियों के अनुसार, मौन ही वह द्वार है जहाँ आत्मा को परमात्मा के संकेत सहज मिलते हैं।

मुरली बिंदु: “जब आत्मा मौन में जाती है — तभी उसे शिव बाबा के सहज संकेत मिलते हैं।”

❓प्रश्न 9: अध्याय 2 के इन श्लोकों का आज के आध्यात्मिक जीवन में क्या महत्व है?

उत्तर:ये श्लोक आत्मा के उस संघर्ष को दर्शाते हैं जो मोह, निर्णय की कमजोरी और डर से गुजरती है। जैसे अर्जुन को श्रीकृष्ण ने जगाया, वैसे ही संगम युग पर परमात्मा भी हर आत्मा को पुकारते हैं:

❝ “बच्चे! मोह छोड़ो, स्वधर्म निभाओ — मैं तुम्हारे साथ हूँ।” ❞

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