A-P 52″ जीव की आत्मा अपना आपही मित्र है अपना आपही शत्रु है?
( प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं)
1. ओम शांति — भूमिका और प्रश्न
आज हम एक बेहद गहरे और सशक्त विषय पर मंथन कर रहे हैं:
“कौन बनेगा पद्मा पद्मपति? कब बनेगा? कैसे बनेगा?”
हर आत्मा की यही तो अंतिम मंज़िल है—
सतयुग का श्रेष्ठतम पद प्राप्त करना।
पर यह पद मिलता कैसे है?
जब आत्मा अकर्म का खाता बनाती है,
तो उसका हर शुद्ध कर्म एक-एक पद्म के रूप में जमा होता है।
लेकिन इसका रहस्य समझने के लिए,
हमें आज के मुख्य ज्ञान बिंदु को गहराई से देखना होगा:
2. आत्मा ही अपना मित्र और अपना शत्रु
“जीव की आत्मा अपना आप ही मित्र है और अपना आप ही शत्रु है।”
इस वाक्य में आत्म-परिवर्तन और आत्म-जागृति का सार छुपा है।
कोई और हमें नहीं गिराता,
हम स्वयं अपने विचारों, भावनाओं और कर्मों से
या तो उत्थान करते हैं या पतन।
3. आत्मा स्वयं अपने कर्मों की जिम्मेदार है
हमें सुख-दुख देने वाला न कोई और है,
न कोई परिस्थिति, न ही कोई संबंध।
जो कर्म आत्मा करती है,
वही उसका भाग्य बनाते हैं।
अगर हम योगयुक्त, सेवा युक्त और श्रेष्ठ कर्म करें,
तो हम स्वयं के सच्चे मित्र बनते हैं।
4. मित्र और शत्रु बनने की प्रक्रिया
आत्मा अपने संकल्पों और दृष्टिकोण के द्वारा
दो स्थितियों में जाती है:
-
सकारात्मक सोच, ईश्वरीय स्मृति और पवित्र कर्म से – मित्रता।
-
नकारात्मक सोच, देह-अभिमान और विकारी कर्म से – शत्रुता।
हमारा ही मन और बुद्धि
हमें ऊँचाई तक ले जा सकते हैं या गिरा सकते हैं।
5. पर-दोष और पर-दर्शन से बचाव
जब आत्मा दूसरों के दोष देखती है,
तो स्वयं के सुधार की यात्रा रुक जाती है।
हमें ध्यान रखना है:
मैं किसे देख रहा हूँ – बाबा को या व्यक्ति को?
क्योंकि जो हम देखेंगे,
वही हमारी स्थिति बनाएगा।
इसलिए दृष्टि बदलो, तो सृष्टि बदलेगी।
6. ड्रामा और कर्म का सिद्धांत
यह संसार एक परफेक्ट ड्रामा है।
जो कुछ भी घट रहा है, वह पूर्वनिर्धारित है,
पर हमारा उत्तरदायित्व है—
हर दृश्य को शक्ति और योग से पार करना।
कर्म की आज़ादी है, पर उसका फल पूर्वनिश्चित है।
7. राग-द्वेष से मुक्त होना ही अकर्म बनना
जब आत्मा किसी से राग या द्वेष करती है,
तो वह स्वयं को ही बाँध लेती है।
सतयुगी आत्मा बनने के लिए
हमें समभाव, निष्काम प्रेम और न्यायपूर्ण दृष्टि अपनानी होगी।
तभी तो कहा गया—
“राग-द्वेष से रहित आत्मा ही देवता बनती है।”
8. निष्कर्ष — आत्मा का भाग्य उसके हाथ में
आज का सार यही है:
पद्मा पद्मपति वही बनेगा—
जो अपने मन, बुद्धि और कर्म को ईश्वरीय रीति से चलाएगा।
यदि आत्मा स्वयं से मित्रता करे—
तो श्रेष्ठ कर्मों का खाता जमा होगा,
और सतयुग में उसे उच्च पद, पद्मा पद्मपति के रूप में प्राप्त होगा।
9. समापन — आत्मिक संकल्प
तो आइए, आज हम संकल्प करें—
🌸 मैं स्वयं का मित्र बनूँगा।
🌸 मैं हर कर्म को ईश्वरीय स्मृति में करूँगा।
🌸 मैं परदोष नहीं, स्वयं के सुधार पर ध्यान दूँगा।
🌸 और मैं पद्मा पद्मपति बनने का अकर्म खाता आज से ही बनाना शुरू करूँगा।